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________________ २३४ यागशास्त्र: द्वितीय प्रकाश मिला और नमस्कार करके उनके सामने बैठ गया। राजा से अनुज्ञा ले कर दूत बोला-'मेरे स्वामी का सन्देश सुन कर आप गुस्सा न करें। 'मधुर बोलने वाले कभी हितैषी नहीं होते।' कर्णपरम्परा से आपकी निन्दा सुनी थी, लेकिन आज तो मैंने प्रत्यक्ष ही अनुभव कर लिया। लोगों का कथन सर्वथा निराधार नही होता । अन्याय से प्राप्त किया हुआ धन का एक अंश भी राजा के तमाम यश को धो डालता है । तूम्बे के फल का एक दाना भी गुड़ की मिठास को नष्ट कर देता है। राजा प्रजा को अपनी आत्मा के तुल्य समझ । राजा के द्वारा प्रजा का उच्छेदन करना उचित नहीं होता। मांसाहारी कभी अपना मास नहीं खाता । इसलिए अपनी प्रजा का पोषण कीजिए । पोषित प्रजा ही राजा का पोषण करती है। गाय दीन-हीन और अधीन होते हुए भी चारे दाने से पोषित किये बिना दूध नहीं देती। लोभ समस्त गुणो का विनाशक है । इसलिए आप लोभ का त्याग कीजिए।" हमारे जनप्रिय राजा ने आपके हित को दृष्टि से यह सन्देश भिजवाया है।" दावाग्नि से जली हुई भूमि पर पानी पड़ते ही जैसे गर्म धुआ-सा उठता है, वैसे ही उस दूत की बात नन्द के कानो में पड़ते ही नन्दराजा न उष्णवचनरूपी गर्म धुए के समान उद्गार निकाले-"बस, चुप हो जा, मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं है । तू राजदूत होने होने के कारण अवघ्य है ; भाग पा यहां से !" यों कह कर नन्दराजा तुरन्त वहां से उठ कर सिरदर्द वाले रोगी की भांति अपने गर्भगह में चला गया। 'जवासा जैसे जलधाग को ग्रहण नहीं करता. वैसे ही यह राजा मेरी उपदेशधारा को ग्रहण नहीं करता, इसलिए उपदेश के अयोग्य है ।" यों सोच कर दूत भी अपने राजा के पास अयोध्या लौट आया । अन्याय के पाप के फलस्वरूप नन्दराजा के शरीर मे पीड़ा देने वाले भयकर रोग पैदा हुए। उन रोगों के कारण उसे इतनी वेदना होती थी, मानो नरक के परमाधार्मिक असुरों द्वारा दी हुई वेदना हो। उस भयंकर वेदना से पीड़ित हो कर राजा ज्यों-ज्यों आक्रन्द करता था, त्यों-त्यों प्रजाजन उससे आनन्द महसूस करता था। नन्दराजा के शरीर और मन में इतना भयंकर वेदना थी, मानो आग में पक रहा हो, या भाड़ में चने के समान भुन रहा हो, अथवा आग में झलम रहा हो । 'पापात्मा के लिए तो यह सब बहुत ही थोड़ा माना जाता है ।' 'हाय ! इस पृथ्वी पर मैंने सोने के पहाड़ खड़े किये ; जगह-जगह सोने के ढेर लगाए ; अब इनका मालिक कौन होगा ? मैं तो इतने सोने का जरा-सा भी आनन्द नहीं ले सका । अफसोस | मैं तो रात-दिन सोना इकट्ठा करने की ही तरकीबें सोचता रहा, इसी में लगा रहा ! अब मेरा क्या होगा ?' यों आर्तनाद करता हुआ एव अपने परिग्रह पर गाढ़ मूर्छा करता हुआ अतृप्त नन्द राजा चल बसा । उसने संसार के असीम दुःख प्राप्त किये । यह है नन्द की परिग्रहकथा ! परिग्रह ग्रहण करने के अभिलापी योगियों के भी मूलव्रतों को हानि पहुंचती है, इस बात को अब प्रस्तुत करते है -- तपःश्रु तपरीवारां, शमसाम्राज्यसम्प। परिग्रहग्रहग्रस्तास्त्यजेयुर्योगिनोऽपि हि ॥११३॥ अर्थ परिग्रहरूपी ग्रह से ग्रस्त योगीजन भी तप और ज्ञान के परिवार वाली शमसाम्राज्य सम्पत्ति को छोड़ बैठते हैं।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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