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________________ २३२ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश क्या हुआ ? यह विस्तार से कहिए ?" इस पर पहले से संकेत किये हुए सैनिकों ने आ कर आद्योपान्त सारी आपबीती सुनाई । यह महाभयंकर समाचार सुनते ही सगरचक्री सहसा मूच्छित हो कर धड़ाम से उमी तरह धरती पर नीचे गिर गया, जिस तरह वज्र पर्वत पर गिर पड़ता है । मूर्छा समाप्त होते ही राजा होश में आए । कुछ देर तक तो राजा साधारण आदमियों की तरह रोने लगे। उन्हें इस घटना से संमार से विरक्ति हो गई। वह विचारने लगे.."मेरे पुत्र मेरे वंश की शोभा बढ़ाएंगे, मुझे आनन्द देंगे, इसी आशा ही आणा में संमार को अगार समझते हुए भी मैंने कुछ नही सोचा । धिक्कार है मुझ ! इतने पुत्रो के होते हुए भी मुझे तृप्ति नहीं हुई तो फिर दो चार पुत्रों के और बढ जान से कैसे हाती ? मेरे जीते जी अकस्मात् मेरे पुत्रों की यह गति हुई है, और वे मेरे पुत्र मुझे कोई सतोष न दे सके ! हाय ! मंसार की ऐमी ही अधम लीला है । इसमें फम कर जीवन को व्यर्थ ही खोना हे !" इस प्रकार मगर चक्रवर्ती ने जन्हकुमार के पुत्र भगीरथ का राज्याभिषेक करके भगवान अजितनाथ के चरणों में दीक्षा धारण की और संयम पालन कर अक्षयपद प्राप्त किया। यह है सगर चक्री की जीवनी का हाल ! कुचिकणं को गोव्रज पर आसक्ति मगधदेश में सुघोषा नामक गांव था । वहाँ कुचिकर्णनाम का एक प्रसिद्ध ग्रामनायक था। उसने धीरे-धीरे एक लाग्न गायें इकट्ठी की। 'बूंद-बूंद से सरोबर भर जाता है ।' उसने उन गायों का अलग-अलग टोले बना कर पालन करने के लिए वे विभिन्न ग्वालों को सौंप दी । परन्तु वे ग्वाले आपस मे तू-तू-मैं-मैं करने लगे, एक कहता- 'मेरी गाय सुन्दर है।' दूसरा कहता-तेरी गाय सुन्दर नही है, मेरी गाय सुन्दर है. इस प्रकार उन्हें लड़ते देख कर कुचिकर्ण ने उन गायों के अलग-अलग विभाग करके किसी को सफेद, किसी को काली, किसी को पीली, किसी को कपिला नाम दे कर भिन्न-भिन्न आरण्कों में गोकुल स्थापित कर दिये। स्वयं भी वह गोकुल में रह कर दूध दही का भोजन करता था। मदिरा का व्यसनी जैसे पर्याप्त मदिरा पी लेने पर भी अतृप्त रहता है, वैसे ही कुचिकर्ण भी इतने दूध-दही के सवन करते हुए भी अतृप्त रहता था । दूध दही के अत्यधिक सेवन से उसे शरीर में ऊपर-नीचे फैलने वाला रसयुक्त अजीणं हो गया। उसके पेट में इतनी अधिक जलन होती, मानो वह आग मे पड़ा हो। वह जोरजोर से चिल्लाता-हाय ! मैं अपनी गायों, बैलों, बछड़ों को फिर कब प्राप्त करूगा ?" इस प्रकार गोधन से अतृप्त कुचिकर्ण वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर तिर्यचगति में पैदा हुआ। तिलकसेठ द्वारा धान्य को मासक्ति का परिणाम प्राचीन काल में अचलपुर नगर में तिलक श्रेष्ठी नाम का एक वणिक् रहता था। वह शहरों और गांवों में अन्न का संग्रह करता था । अपने ग्राहकों को वह उड़द, मूंग, तिल, चावल, गेहूं चने आदि अनाज डेढा लेने की दर पर देता था और फसल आने के बाद उनसे डेढा वसूल करता था। धान्य से धान्य की, पशुओं से धान्य की और धन से धान्य की वृद्धि कैसे हो ? किस उपाय से धान्य बढ़े ? 'तत्त्वचिन्तन की तरह इसी बात का रातदिन चिन्तन (ध्यान) किया करता था और धान्य खरीदता और पूर्वोक्त मुनाफे पर बेच दिया करता। जब मनुष्य को किसी चीज की धुन सवार हो जाती है तो, वह व्यसन की तरह उससे चिपट जाती है, उसकी आसक्ति छूटती नहीं।" यही हाल तिलक सेठ का था । अनाज के संग्रह से करोड़ों कीड़े मर जाते थे, इसकी वह परवाह नहीं करता था। पंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों पर अनाब का बोझ लादने से उन्हें जो पीड़ा होती थी, उसका विचार करके उसे जरा भी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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