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________________ सगरचक्रवर्ती को सौ पुत्रों के होते हुए भी अतृप्ति तथा उनके वियोग से वैराग्य २३१ ने भूल हुई है, इसलिए मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ । भविष्य में ऐसी भूल फिर मत करना ।" यों कह कर देव अपने स्थान को लोट गया । जन्हुकुमार ने फिर अपने भाइयों के साथ विचारविमर्श किया कि हमने दण्डरत्न से यह खाई तो बना दी, लेकिन समय पा कर यह खाई तो धूल से भर जायगी । इसलिए इसी दण्ड से खींच कर गंगानदी को यहां ले आएं और उसका प्रवाह इसी खाई में डाल दें।" उन्होंने वँसा ही किया । किन्तु उस जल से नागकुमारों के भवनों को फिर क्षति पहुंची । अतः नागकुमारों के साथ क्रुद्ध ज्वलनप्रभदेव ने आ कर उन सबको वैसे ही जला कर भस्म कर दिया, जैसे दावानल सभी वृक्षों को भस्म कर डालता है । यह देख कर सैनिकों दु.खपूर्वक सोचा - "हम कायर लोगों के देखते ही देखते हमारे स्वामी को जला कर भस्म कर दिया, धिक्कार है हमें !" यों विचार करके शर्म के मारे सैनिक वहाँ से चल कर अयोध्या के निकट आ कर रहने लगे। वे बार-बार यह विचार-विनिमय करने लगे कि हम अपने स्वामी को कैसे मुंह बताएंगे ? और इस शोकजनक घटना का जिक्र भी उनके सामने कैसे करेगे ?" एक दिन एक ब्राह्मण आ कर उनसे मिला ; उसके सामने उन्होंने सारी आपबीती कह कर उसकी राय मांगी । ब्राह्मण ने कहा- "तुम लोग घबराओ मत । मैं ऐसी सिफ्त से राजा से बात कहूंगा, जिससे राजा को शोक भी नहीं होगा, और तुम पर से उनका रोष भी उतर जायगा ।" यों आश्वासन दे कर ब्राह्मण एक अनाथ मृतक (मुर्दे ) को ले कर राजदरबार में पहुंचा और वहाँ जोरजोर से विलाप करने लगा कि - 'हाय ! मेरा इकलौता पुत्र मर गया ।' राजा ने उससे विलाप का कारण पूछा तो उसने कहा - "मेरे इस इकलौते पुत्र को सांप के काटने से यह मूच्छित हो गया है। इसलिए देव ! कृपा करके इसे जीवित कर दें।' राजा ने सर्प का जहर उतारने वालों को बुला कर उन्हें उसका उतारने की बहुतेरी कोशिश की, मगर क्या जहर उतारने की आज्ञा दी। उन्होंने अपने मंत्रकौशल से जहर राख में घी डालने के समान वह निष्फल सिद्ध हुई । वह मरा हुआ व्यक्ति जीवित न हो सका । परन्तु उधर उस शोकग्रस्त ब्राह्मण को भी समझाना आसान न था । अतः राजा ने एक युक्ति से समझाया "विप्रवर ! तुम ऐसा करो, जिसके यहां आज तक कोई मरा न हो, उसके यहाँ से एक मुट्ठी राख ले आओ । बस, राख मिलते ही मैं तुम्हारे पुत्र को जिला दूंगा।" राजा के कहते ही ब्राह्मण ने हर्षित हो कर कहा - "यह तो बहुत ही आसान बात है ।' ब्राह्मण वहां से चल पड़ा और गांव-गांव और नगर नगर में घूमता फिरा राख की तलाश में । परन्तु ऐसा कोई घर न मिला ; जिसके यहां आज तक कोई न मरा हो ।" ब्राह्मण निराश हो कर खाली हाथ लौट आया तो राजा ने कहा- "विप्रवर ! राख ले आए ?" ब्राह्मण ने कहा - "महाराज ! ऐसा कोई घर न मिला, जहाँ कोई मरा न हो। अतः अब तो आप हो ऐसी राख दे दीजिए ।" राजा ने कहा- "मेरे कुल में भी भगवान् ऋषभदेव, भरत चक्रवर्ती, बाहुबली, सूर्ययशा, सोमयशा आदि अनेक व्यक्ति चल बसे हैं, कोई मोक्ष जितशत्रु मोक्ष में गए हैं, सुमित्र राजा देवलोक में गए हैं। अतः मृत्यु तो इतने मर गए और उनका वियोग हमने सह लिया तो फिर तुम अपने सहन कर लेते ?" ब्राह्मण ने कहा – महाराज ! आपकी बात सही है । परन्तु मेरे तो एक ही पुत्र है, इसलिए आपको इसे बचाना चाहिये। दोनों और अनाथों की रक्षा करने का तो सत्पुरुषों का नियम होता है ।" चक्रवर्ती ने कहा- 'विप्रवर ! तुम शोक मत करो ! मृत्यु के दुःख से संसार में मुक्त होने का उपाय वैराग्यभावना की शरण ही है ।' ब्राह्मण ने उन्हें उसी सिक्के में जवाब दिया- "पृथ्वीनाथ ! यदि ऐसी बात है तो आपके साठ हजार पुत्रों के मरने का भी आपको मोह नहीं होना चाहिए।" राजा ने सुनते ही चौंक कर कहा - "ऐं क्या कहा ? मेरे ६० हजार पुत्र मर गए ?" कैसे मरे ? क्या एक भी नहीं बचा ?" गया तो कोई स्वर्ग में, राजा सर्वसाधारण है। जब इतने एक पुत्र का वियोग क्यों नहीं - -
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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