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________________ २३० योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश के बहुत से कोठार भरे थे, फिर भी उसकी तृप्ति न हई और नंबराजा को सोने की पहाड़ियां मिलने पर भी संतोष नहीं हुआ। इसलिए परिग्रह असंतोष का ही कारण है । अब हम क्रमशः सगर आदि की कथा दे रहे हैं पुत्रलोभी सगर चक्रवर्ती उन दिनों अयोध्या में जितशत्रु रावा राज्य करता था। सुमित्र नाम का उसका छोटा भाई युवराज था। दोनों भाई पृथ्वी का पालन करते थे। जितशत्र राजा के पुत्र हुए-तीर्थकर अजितनाथ, और सुमित्र युवराज के पुत्र हुए- सागर चक्रवर्ती। जितशत्र और सुमित्र दोनों के दीक्षा ग्रहण करने के बाद अजितस्वामी राजा हुए और सगर युवराज बने। कुछ अर्श बीत जाने के बाद अजितनाथ ने दीक्षा ले ली, इससे मरत की तरह सगरचक्रवर्ती राजा बन गया। छाया में विश्राम लेने वाले पथिकों की थकान को दूर करने वाले विशाल महावृक्ष को हजारों शाखाओं की तरह सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुष हुए । सगर के पुत्रों में सबसे बड़ा जन्हकुमार था। एक बार पिता ने उसके किसी कार्य से प्रसन्न हो कर उसे वरदान दिया था। एक बार जन्हकुमार ने पिताजी के सामने अपनी अभिलाषा प्रगट की-"पिताजी ! मैं आज उस अमानत रखे वरदान के रूप में यह चाहता हूं कि मुझे चक्रवर्ती के दमरत्न आदि मिले, जिन्हें ले कर मैं अपने भाइयों के साथ इसी भूमण्डल में पर्यटन कर पाऊँ ।" सगर ने उसे वे रत्न दे दिये और पर्यटन की आज्ञा दे दी । सूर्य से भी बढ कर तेजस्वी हजारों छत्र धारण किए हए बन्ह आदि सगरपुत्र पिताजी का आशीर्वाद ले कर महाऋदि और महाभक्तिपूर्वक प्रत्येक जिनविम्ब की पूजा करते और यात्रा करते हए एक दिन अष्टापद पर्वत के निकट आए । ८ योजन ऊंचे और ४ योजन चौड़े उस पर्वत पर बन्हकुमार अपने बन्धुओं एव परिवार के सहित चढ़े और वहां एक योजन लंबा, बाधा योजन चौड़ा, तीन कोस ऊंचा, चार द्वारों वाला मन्दिर था, उसमें सबने प्रवेश किया। उस मंदिर में वर्तमान ऋषभादि चौवीस तीर्थकरों की अपनेअपने संस्थान, परिमाण बोर वर्णवाली प्रतिमाएं थीं। उन्होंने उनकी क्रमशः अर्चा की, तत्पश्चात् भरत द्वारा निर्मित १०० भाइयों के पवित्र स्तूपों की वंदना की। फिर बढाविभोर हो कर कुछ सोच कर उच्च स्वर से कहा-"मेरी राय में अष्टापद सरीखा स्थान (तीर्थ) अन्यत्र कहीं भी नहीं है। मैं भी इसी के जैसे और चैत्य बनवाऊंगा। भरत चक्रवर्ती के मुक्ति प्राप्त करने के बाद से अब तक इस पर्वत के शिखर पर स्थित भरतखण्ड के उनके चक्रवतित्व के स्मारक भरतखण्ड के सारभूत ये चत्य हैं । उनके बनाए हुए इन चैत्यों को भविष्य में होने वाला कोई राजा विनष्ट न करे, इसके लिए हमें इनकी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए । उसके बाद हजार देवताओं से अधिष्ठित दणरत्न को हाथ में ले कर अष्टापद के चारों ओर घुमाया। इस कारण भूमि में नीचे कुम्हड़े के समान हजार योजन गहरा एक गड्ढा बन गया । और नीचे पाताललोक में जो भवनपति नागदेवों के भवन बने हुए थे, वे टूट गए। इस अप्रत्याशित संकट से देव भयभीत हो कर अपने स्वामी ज्वलनप्रभ की शरण में पाए । उसे अवधिज्ञान से पता लगा कि यह सब जन्हकुमार की करतूत है। बत कुद्ध हो कर जन्हुकुमार के पास आ कर उसे फटकारा -अरे मदोन्मत्त ! तुमने अकारण ही भयंकर रूप से इतनी जमीन फाड़ कर क्यों असंख्य जीव जन्तुओं की हत्या की ? तीर्थकर अजितनाथ के भतीजे एवं सगरचक्री के पुत्रो ! निर्लज्ज कुलकलंकियो ! तुमने यह अपराध क्यों किया ?" इस पर जन्हकुमार ने कहा- 'मैंने तो यहाँ के स्तूपों (चैत्यों) की रक्षा के लिए ऐसा किया था। आपके भवनों का नाश हुआ. यह मेरी अज्ञानता से हमा है । अत: बाप लोग मुझे ममा करें।" इस पर ज्वलनप्रम देव ने कहा - "बजानता से तुम्हारी यह
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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