SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिन्नभिन्न परिग्रहों में आसक्त व्यक्तियों के बुरे हाल हुए २२६ परिग्रह के दोषों पर सिंहावलोकन करते हैं मुष्णन्ति विषयत्तेना, दहति स्मरपावकः । रुन्धन्ति वनिताव्याधाः सङ्ग्रङ्गीकृतं नरम् ॥१११॥ अर्थ स्वर्ण, धन, धान्यादि परिग्रहों को आसक्ति से जकड़े हुए पुरुष को विषयस्पो चोर लूट लेते हैं; कामरूपी अग्नि जला देती है, स्त्रीरूपी शिकारी उसे संसार को मोहमाया के जाल में फंसा लेते हैं। व्याख्या जिस प्रकार धन, स्वर्ण आदि परिग्रह वाले व्यक्ति को जंगल में चोर लूट लेते हैं, उसी प्रकार संमाररूपी अरण्य में प्राणी को शब्दादि-विषयरूपी लुटेरे संयमरूपी सर्वस्व लूट कर भिखारी बना देते हैं। इसी तरह आग लगने पर अधिक परिग्रह वाला भाग कर झटपट निकल नहीं सकता, वैसे ही संसाररूपी अटवी में रहा हुआ पुरुष चित्तादि दस प्रकार की कामविकाररूपी आग में जल रहा है। अथवा अत्यधिक परिग्रही को जंगल में जाने पर धन या शरीर के लोभी लुटेरे रोक लेते हैं, उस परिग्रही यात्री को आगे बढ़ने नहीं देते, उमी प्रकार भवरूपी अरण्य में धनलुन्ध या शरीर के कामभोग में लुब्ध कामिनियां परिग्रहसंगी पुरुप की स्वातंत्र्यवृत्ति रोक देती हैं, उसे सयममार्ग पर आगे बढ़ने नहीं देती। कहा भी है. कितना भी परिग्रह हो, मनुष्य की इच्छा पूर्ण नहीं होती, बल्कि असंतोष बढ़ता ही जाता है । शास्त्र में बताया है --- लोभी मनुष्य के पास कैलाश और हिमालय के ममान सोने और चांदी के असंख्य पहाड़ हो जाय, और उसे मिल जाय, किन्तु इतने पर भी उसकी जग भी तृप्ति नहीं होगी। क्योंकि इच्छाएँ तो आकाश के समान अनन्त असीम हैं। आगमों में और भी कहा है- 'पशुओं के सहित धन, धान्य, सोना, चांदी आदि से परिपूर्ण सारी पृथ्वी यदि किसी को मिल जाय तो भी अकेली वह उसकी इच्छा को पूर्ण करने में समर्थ नहीं हो सकती। यह जान कर ज्ञानागधन और तपश्चरण करना चाहिए। कवियों ने भी कहा है-तृष्णा का गढ्डा इतना गहरा और अथाह है कि उसे भरने के लिए उसमें कितना ही डाला जाय, फिर भी परिपूर्ण नहीं होता। आश्चर्य तो यह है कि तृष्णा के गड्ढे को पूरा भरने के लिए उसमें बड़े-बड़े पर्वत डाले जाय तो भी खाली का खाली रहता है। जैसे खनिक लोग किसी खान को ज्यों-ज्यों खोदते जाते हैं, त्यों-त्यों वहाँ खड्डा बढ़ता जाता है, वैसे ही मानव ज्यों-ज्यों धन के लिए मेहनत करता जाता है, त्यों-त्यों असंतोप का गड्ढा बढता जाता है । अथवा जो महापर्वत पर एक बार चढ़ जाता है, यह क्या आकाश में आरूढ़ हो सकता है ? यही बात आगे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं तृप्तो न पुत्रः सगरः, कुचिकर्णो न गोधनः । न धान्यस्तिलकश्रेष्ठी, न नन्दः कनकोत्करः ॥१२॥ अर्थ सगरचक्रवर्ती के ६० हजार पुत्र हुए, तब भी उसे तृप्ति नहीं हुई। कुचिकर्ण के पास बहुत-से गायों के गोकुल थे, फिर भी उसे संतोष नहीं हुआ, तिलकसेठ के पास अनाज
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy