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________________ योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश ढले फेंकने से कौए उड़ जाते हैं, वैसे ही वे तापस इस कौशिक के अत्याचार से तंग आ कर अलग-अलग दिशाओं में चले गये । एक दिन यह चंडकौशिक कांटेदार झाड़ी लेने के लिये आश्रम से बाहर गया हुआ था। पीछे से श्वेताम्बी नगरी से बहुत से राजकुमारों ने आकर उसके आश्रम और बाग को उजाड़ दिया । कौशिक कंटिका ले कर वापस लौट रहा था तो ग्वालों ने उमे कहा कि-'आज तो आपका बगीचा कोई तहसनहस कर रहा है ! जल्दी जा कर सँभालो !' घी से जैसे आग भड़कती है, वैसे ही क्रोध से अत्यन्त भड़ककर वह कौशिक तीखी धार वाला कुल्हाड़ा ले कर उन्हें मारने दौड़ा। जैसे बाज से डर कर दूसरे पक्षी भाग जाते हैं, वैसे ही वे राजपुत्र भी चंडकौशिक को कुल्हाड़ी लिये आते देख नौ-दो-ग्यारह हो गए । तपस्वी बेतहाशा दौड़ा आ रहा था कि, क्रोध में भान न रहने से अचानक यम के मुखसदृश एक गहरे कुए में गिर पड़ा। गिरते समय हाथ में पकड़ी हुई कुल्हाड़ी मुंह के सामने होने से उसकी धार मस्तक में गड़ गई और उसका मस्तक फट गया । सच है, कृत कमों के फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं ! वही चंडकौशिक तापम मर कर इसी वन में अतिक्रोधी दृष्टिविप सर्प बना हुआ है। वास्तव में, तीव्र अनन्तानुबन्धी क्रोध अन्य जन्मों में भी साथ जाता है । लेकिन 'यह अवश्य ही बोध प्राप्त करेगा।' ऐसा विचार कर विश्ववत्सल प्रभु अपने कष्ट को कष्ट न समझ कर उस सर्प की भव-भ्रमण पीड़ा मिटाने हेतु उसी मार्ग से चले । वह जंगल मनुष्यों के परों का संचार न होने से ऊबड़खाबड और वीरान हो गया था। वहाँ की छोटी-सी नदी का पानी पीया न जाने से प्रवाहरहित रेतीला व गन्दला हो गया था। वहां के पड़-पौधे टूट बन गये थे, उनके पत्ते सूख गये थे । पेड़ों पर जगह-जगह दीमकों ने अपने टीले बना डाले थे । झोपड़ियां उजड़ गयी थी। विश्ववत्सल प्रभ ने इस वीरान जंगल में प्रवेश किया। और यक्ष के जीर्णशीर्ण मन्दिर के मंडप में वे नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि टिका कर कायोत्सर्ग (ध्यान) में खड़े हो गये । अहंकारी चंडकोशिक सपं कालरात्रि की तरह जीभ लपलपाता हुआ अपनी बांबी से निकला। वह वन में घूमता हुआ रेती में संक्रमण होती हुई अपने शरीर की रेखा से मानो अपनी आज्ञा का लेख लिख रहा था । ज्योंही उसने महाबली प्रभु को देखा, त्योंही अपने अहं को चुनौती ममझ कर सोचने लगा-"यह कोन ठूठ-सा नि:शंक हो कर मुझे जताए बिना ही मेरी अवज्ञा करके ढीठ बन कर खड़ा है ? इसने इस जंगल में घुसने का साहस ही कैसे किया ? अत: अभी इसे जला कर भस्म करता हूँ।" इस प्रकार क्रोध से जलते हुए उस सर्प ने फन ऊंचा किया । अपने मुंह से विपज्वालाएं उगलता हुमा और वृक्षों को जलाती हुई दृष्टि से भयंकर फुफकार करता हुआ प्रभु को एकटक दृष्टि से देखने लगा। आकाश से पर्वत पर गिरते हुए दुर्दशनीय उल्कापात के समान उसकी जाज्वल्यमान दृष्टि-ज्वालाएं भगवान के शरीर पर पड़ी, परन्तु जैसे महावायु मेरुपर्वत को चलायमान करने में समर्थ नहीं हो सकती, वैसे ही महाप्रभावशाली प्रभु का वह कुछ भी नुकसान नहीं कर सका । "अरे ! अभी तक यह काष्ठ की तरह जला क्यों नहीं ?" यह सोच कर क्रोध से अधिक तप्त हो कर वह सूर्य की ओर बार-बार दृष्टि करके फिर ज्वालाएं छोड़ने लगा । परन्तु वे ज्वाला भी प्रभु के लिये जलधाग के समान बन गई। अत: उस निर्दयी सर्प ने प्रभु के चरणकमल पर दंश मारा और अपना जहर उगला । इस प्रकार कई बार लगातार डस कर वह वहाँ से हटता जाता था, यह सोचकर कि कहीं यह मेरे जहर से मूर्छा खा कर मुझ पर पर ही गिर कर मुझे दबा न दे। फिर भी प्रभु पर उसके जहर का जरा भी असर नहीं हुआ। उनके अंगूठे से दूध की धारा के समान उज्ज्वल सुगन्धित रक्त बहने लगा । उसके बाद वह प्रभु
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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