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________________ चण्डकौशिक सर्प को प्रतिबोध ε है के सामने आश्चर्यपूर्वक टकटकी लगा कर देखने लगा और सोचने लगा- 'अरे ! यह कौन है, जिस पर मेरे विष का कोई प्रभाव न हुआ ? बाद में जगन्नाथ महावीर के अद्भुत रूप को देख कर उसकी कान्ति और सौम्यता से उसकी आंखें सहसा चकाचोंध हो गई। सर्प को शान्त जान कर भगवान् ने उसने कहा' चंडकौशिक ! अब भी बोध प्राप्त कर समझ जा, जागृत हो जा, मोह मत कर।" भगवान् के ये वचन सुन कर मन ही मन उन पर उहापोह ( चिन्तन-मनन ) करते करते उसे पूर्व जन्म का ज्ञान – जातिस्मरण हो गया । अब चण्डकौशिक कषायों से मुक्त व शान्त हो चुका था । उसने भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा दे कर मन से अनशन अंगीकार कर लिया । महाप्रभु ने पापकर्म से रहित और प्रशमरस में तल्लीन उस महासर्प द्वारा स्वीकृत अनशन को देख कर उसे उपदेश दिया - " वत्म ! अव तू कहीं पर भी मत जाना, तेरी आँखों में जहर भरा हुआ ।" यह सुन कर वह बांबी में मुंह डाल कर समतारूप अमृत का पान करने लगा। उस पर अनुकंपावश भगवान भी वहीं रुके रहे । सच है - महापुरुषों की प्रवृत्तियां दूसरों के उपकार के लिये होती हैं ।" ऐसी स्थिति में भगवान् को देखकर आश्चर्य से आंखें फाड़ते हुए ग्वाले एकदम वहाँ दौड़े हुए आये वृक्षों की ओट में छिप कर वे हाथ में जो पत्थर व ढेले आदि लाये थे, उनमे महात्मतुल्य बने हुए सर्प पर निर्दयतापूर्वक प्रहार करने लगे । किन्तु उसे अडोल और स्थिर देख कर उन्हें विश्वास हो गया कि यह शान्त है; तब उसके पास जा कर उसके शरीर को लकड़ी छुआ कर कुरेदने लगे; फिर भी वह स्थिर रहा। ग्वालों ने यह बात गांव के लोगों से बताई तो वे लोग भगवान् की और उस महासर्प की पूजा करने लगे। उस मार्ग से घी बेचने जाती हुई ग्वालिने नागराज के शरीर पर घी और मक्खन चुपड़ने लगी, उसकी गंध से तीक्ष्णदंशी चींटियों ने काट काट कर उसके शरीर को छलनी के समान बना दिया । 'मेरे क्रूर कर्मों की तुलना में यह वेदना तो कुछ भी नहीं है ;' इस तरह अपनी आत्मा को समझाता हुआ वह महानुभाव सर्प उस अतिदुःसह वेदना को सहन करने लगा । ये बेचारी निर्बल चींटियाँ कहीं मेरे इधर-उधर हिलने-डुलने से दब कर मर न जायें ! इस विचार से वह महासर्प अपने अंग को अब जरा भी चलायमान नहीं करता था । भगवान् की कृपामी सुधावृष्टि से सिंचित व स्थिरचित्त वह सर्प पन्द्रहवे दिन मर कर सहस्रार नामक वैमानिक देवलोक में गया । । इस प्रकार अपने पर विविध उपसर्ग करने वाले दृष्टिविष फणिधर और भक्ति करने वाले इन्द्र, इन दोनों पर चरम तीर्थंकर, तीन जगत् के अद्वितीय बन्धु, श्री महावीर परमात्मा समानभाव रखते थे । कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः । ईषद् - वाष्पाई योद्र, श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥ ३॥ अर्थ अपराध करने वाले जीवों पर श्रीमहावीरप्रभु के नेत्रों का कल्याण हो । भी दया से पूर्ण और करुणाश्रु से आर्द्र (गोले ) व्याख्या भगवान् महावीर की आँखें अपराध करने वाले संगमदेव परिपूर्ण थी। अंतर में महान करुणा से आप्लावित उनकी आंखें सदैव आदि पर भी अगाध करुणा सं अश्रुजल से भीगी रहती थीं ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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