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________________ ग्वाले के द्वारा भ० महावीर पर उपसर्ग और प्रभु के गुणगण-वर्णन के समान गुप्तेन्द्रिय, सर्प के समान एकान्तदृप्टि वाले, शंख के समान निरंजन, सोने के समान उत्तम रूप वाले, पक्षी की तरह मुक्त उड़ान भरने वाले, चैतन्य की भांति अप्रतिहत (बेरोकटोक) गति वाले, आकाश के समान निरालम्ब भारंड पक्षी के समान अप्रमत्त, कमलिनीपत्र के समान निर्लेप; शत्र और मित्र, तृण और राज्य, सुवर्ण और पत्थर, मणि और मिट्टी, इहलोक और परलोक, सुख और दुःख, संसार और मोक्ष, इन सभी पदार्थों पर समभावी; निःस्वार्थभाव से करुणा करने में तत्पर, मनोबली होने से संसार-समुद्र के डूबते हुए एवं अपना उद्धार चाहने वाले जीवों के उद्धारकर्ता, वायु के समान अप्रतिबद्ध, जगद्गुरु महावीर, समुद्ररूपी करधनी पहनी हुई. अनेक गांवों, नगरों और वनों से सुशोभित पृथ्वी पर विचरण करने लगे। विचरण करते-करते एक बार वे दक्षिण जाबालप्रदेश में पहुँचे । वहाँ से विहार करते हुए प्रभु श्वेताम्बिका नगरी जा रहे थे । रास्ते में कुछ गोपालकों ने कहा - 'हे देवायं ! श्वेताम्बी नगरी की ओर जाने के लिये यह रास्ता सीधा जरूर है, परन्तु इसमें बीच में कनखल नामक तापस का एक सूना आश्रम पड़ता है, वहाँ अब एक दृष्टिविष सर्प अपनी बांबी बना कर रहता है। वहाँ पशु-पक्षी, मनुष्य या कोई भी प्राणी सहीसलामत नहीं जा सकते। अत: आप इस मार्ग को छोड़ कर थोड़े से चक्कर वाले इस मार्ग से चले जाएं । कहावत है-- जिस सोने से कान कट जाय, उसे पहनने से क्या लाभ ?' भगवान् ने अपने आत्मज्ञान में डुबकी लगा कर जाना कि वह सर्प णौर कोई नहीं, वही पूर्वजन्म का तपस्वी साधु है, जो भिक्षा के लिये जा रहा था कि मार्ग में उसका पैर एक मेंढकी पर पड़ने से वह मर गई । एक छोटे साधु ने उससे उस दोष की आलोचना करने का कहा और उसे मरी हुई मेढ़की भी बताई । मगर वह तपस्वी साधु अपनी गलती की आलोचना करने के बदले अन्य लोगो के पैरों तले कुचल जाने से मरी हुई मेंढ़कियाँ बता कर कहने लगा -- 'अरे दुष्ट, क्षुल्लक मुनि ! बता, ये सारी मेंढ़कियां क्या मैंने ही मारी हैं ?' पवित्र बुद्धि वालं, वालमुनि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और ऐसा माना कि अभी यह महानुभाव भले ही इसे न मानें, परन्तु संध्या को तो आलोचना करके प्रायश्चित्त ले ही लेंगे। मगर शाम को प्रतिक्रगण के समय वह मुनि आलोचना करके प्रायश्चित्त लिये बिना ही बैठ गये । तब बालमुनि ने विचार किया कि यह उस मेंढ़की की विराधना की बात भूल गये मालूम होते हैं । इसलिए उस जीवविराधना की बात बाद दिलाने हेतु उसने कहा- 'मुनिवर ! आप उस मेंढकी की विराधना की आलोचना व प्रायश्चित्त क्यों नही करते ? ऐसा कहते ही यह तपस्वी साधु क्रोध से आग-बबूला हो कर बालमुनि को मारने के लिये दौड़ा था। उग्रतम क्रोध के कारण यह तपस्वी साधु म्तम्भ के साथ ऐसा टकराया कि वहीं खत्म हो गया। साधुत्व की विराधना के कारण वह ज्योतिष्क देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यवन कर यह कनकखल आश्रम में पांच सौ तापसों के कुलपति की स्त्री से कौणिक नाम का पुत्र हुआ। वहाँ कौशिक गोत्र वाले और भी बहुत-से साधु रहते थे। किन्तु यह कौशिक अतिक्रोधी होने से लोगों ने इसका नाम चंडकौशिक रखा था। अपने पिता के मर जाने के बाद चंडकौशिक कुलपति बना। यह कुलपति वनखण्ड की आसक्ति से दिन-रात वन में भ्रमण करता था। और इस वन से किसी को भी पुष्प, फल, मूल, पत्ते आदि नहीं लेने देता था। नष्ट हुए निरुपयोगी फलादि को भी कोई ग्रहण करता तो उसे लकड़ी, ढेला, पत्थर, कुल्हाड़ी, आदि से मारता था। अतः फलादि नहीं मिलने से वे तापस बड़े दुखी होने लगे । जैसे
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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