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________________ २१८ योगशास्त्र:द्वितीय प्रकाश मति सुदर्शन ने प्रगट में कहा-'भद्रे ! युवापुरुष के लिए तो तुम्हारी प्रार्थना उचित कही जा सकती है, लेकिन मैं तो नपुंसक हूं। तुम व्यर्थ ही मेरे पुरुषवेष को देख कर ठगा गई हो।' यह सुनते ही कपिला का काम का नशा उतर गया। मन ही मन पछताते हुए फौरन ही उसने द्वार खोल कर कहा'अच्छा, अच्छा, तब तुम मेरे काम के नहीं हो, जामो।' सुदर्शन भी यों सोचता हुमा झटपट बाहर निकल गया कि अच्छा हुआ, सटपट इस नरकद्वार से छुटकारा मिला। अब वह सीधा अपने घर पहुंचा। सुदर्शन चिन्तन की गहराई में डूब गया-'सचमुच, ऐसी स्त्रियाँ कपटकला में राक्षसों से भी बढ़ कर भयंकर, प्रपंच में शाकिनी सरीखी और चंचलता में बिजली को भी मात करने वाली होती हैं । मुझे भय है, ऐसी कुटिल, कपटी, चपल, मिथ्यावादिनी नारी मे कि कहीं वह और प्रपंच न कर बैठे। अतः मैं इस प्रकार का संकल्प करता हूं कि आज से मैं कदापि किसी के घर पर अकेला नहीं जाऊंगा ।' तत्पश्चात् मूर्तिमान सदाचार सुदर्शन शुभ धर्मकार्य करता हुआ, अपना जीवन सुख से व्यतीत करने लगा। अपने जीवन से कोई गलत आचरण न हो, इस बात का वह बराबर ध्यान रखता था । एक दिन नगर में नगर के योग्य एवं समग्र जगत के लिए आनन्दरूप इन्द्रमहोत्सव चल रहा था। शरत्कालीन चन्द्रमा और अगस्ति के समान शोभायमान सुदर्शन और कपिलपुरोहित साथसाथ राजोद्यान में पहुंचे। इधर राजा के पीछे-पीछे देवी की तरह विमानरूपी पालखी में बैठ कर अभयरानी भी कपिला के साथ जा रही थी। ठीक इसी समय मूर्तिमान मतीधर्म की तरह सुदर्शनास्नी मनोरमा भी अपने ६ पुत्रों के साथ रथ में बैठ कर उद्यान में जा रही थी। उसे देख कर कपिला ने अभयारानी से पूछा-'स्वामिनी ! रूप-लावण्य की सर्वस्वभंडार सुन्दरवर्णा देवांगना-सी यह कौन स्त्री रथ में बैठी आगे-आगे जा रही है ? अभयरानी बोली-"पण्डिता ! क्या तुम इसे नहीं जानती ? यह साक्षात् गृहलक्ष्मी-सी सुदर्शन की धर्मपत्नी है।' विस्मित हो कर कपिला ने कहा - 'यह सुदर्शन की गृहिणी है ? तब तो गजब का इसका कोशल है !' रानी -'किस बात में तुम इसका कौशल गजब का मानती हो?' तपाक से कपिला बोली-'इतने पूत्रों को जन्म दे कर इसने गजब का कमाल कर दिया है।' अभयारानी ने कहा-'पतिपत्नी दोनों को एक-दूसरे के प्रति अनन्यप्रीति हो तो स्त्री इतने पुत्रों को जन्म दे, इसमें कौन-सा कमाल ? इस पर झुझलाते हुए कपिला ने कहा-'हाँ, यह सच है, कि पति पुरुष हो तो ऐसा हो सकता है, लेकिन इसका पति सुदर्शन तो पुरुषवेश में नपुंसक है।' तुम्हें कैसे पता कि वह नपुंसक है ?' अभयारानी ने पूछा। इस पर कपिला ने सुदर्शन के साथ अपनी आपबीती सुनाई । अभया ने कहा-'भोली कपिला ! यदि ऐसा है तो तुम ठगा गई हो ! वह परस्त्री के लिए नपुसक है, अपनी स्त्री के लिए नहीं।' कपिला झेंप गई और ईर्ष्या से ताना मारते हुए बोलीमैं तो मूर्खा और भोली थी, इसलिए ठगा गई, आप तो चतुर्राशरोमणि है ! मैं तो तभी आप में विशेषता समरगी, जब आप उसे अपने वश में कर लेंगी।' अभया ने कहा-प्रेम और मुक्तहस्त दान से तो बड़े बड़े वश में हो जाते हैं, जड़ पत्थर भी पिघल जाता है ; तो फिर इस सजीव पुरुष की क्या बिसात है मेरे सामने ? कपिला ने तुमकते हुए कहा-बेकार की डींग मत हांको, महारानीजी ! आपको अपने कौशल पर इतना गर्व है तो सुदर्शन के साथ रतिक्रीड़ा करके बताइए।' हठ पर चढ़ी हुई रानी ने अहंकारपूर्वक कहा-'कपिले ! बस, मैंने सुदर्शन के साथ रमण कर लिया, समझ लो ! 'रमणी चतुर हो तो बड़े-बड़े वनवासी कठोर तपस्वी भी वश में हो जाते हैं तो यह बेचारा कोमलहृदय गृहस्थ किस बिसात में है ? इसे वश में करना तो मेरे बांये हाथ का खेल है। अगर इसे वश में करके इसके
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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