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________________ शील में दृढ़ सुदर्शन कपिला के कामजाल में नहीं फंसे २१७ अपने पति से पूछा-'स्वामिन् ! आप हमेशा अनेक करणीय कार्यों को नजरअंदाज करके इतना समय कहाँ बिताते हैं ?' पुरोहित ने कहा- 'मैं अधिकतर सुदर्शन के पास रहता हूँ।' कपिला ने सुदर्शन का परिचय पूछा तो पूरोहित ने उत्तर दिया -"प्रिये ! क्या तम सज्जनपरुषों में अग्रणी. जगत में अद्वितीय रूपसम्पन्न, प्रियदर्शनीय मेरे मित्र सुदर्शन को नहीं जानती ? लो, मैं तुम्हें उसका परिचय कराता हूं। सुदर्शन ऋषभदास सेठ का बुद्धिशाली पुत्र है, वह रूप में कामदेव, कान्ति में चन्द्रमा, तेज में सूर्य, गम्भीरता में समुद्र, क्षमा में उत्तममुनि, दान में चिन्तामणिरत्न के समान है; गुणरूपी माणिक्य का रोहणाचल पर्वत है, वह इतना मधुरभाषी है, मानो सुधा का कुण्ड हो, पृथ्वी के मुखाभरण के समान है। उसके समस्त गुणों का कथन करने में कौन समर्थ है ? वह गुणचूड़ामणि शील से कदापि स्खलित (विचलित) नहीं होता ।' पति के मुंह से सुदर्शन की रूपप्रशंसा सुन कर कपिला के हृदय में कामाग्नि धधक उठी ; वह उसके रूप पर मन ही मन आसक्त हो गई। 'प्रायः ब्राह्मणपत्नियाँ चंचल होती हैं । योगिनी जैसे परब्रह्म का समागम करने के लिए दिनरात रटन करती है, वैसे ही कपिला सुदर्शन से समागम करने के लिए रातदिन रटन करती और उपाय सोचा करती थी। एक दिन राजा की आज्ञा से कपिल दूमरे गांव को गया हुआ था। कपिला यह अच्छा मौका देख कर सुदर्शन के यहां पहुंची और उससे कहा- 'आज तुम्हारे मित्र का स्वास्थ्य अत्यन्त खराब है, इसलिए वे तुमसे मिलने नही आए । एक तो वे शरीर से भी स्वस्थ नहीं हैं, दूसरे वे तुम्हें न मिलने के कारण तुम्हारे विरह में बेचैन हैं। इसी कारण तुम्हें बुलाने के लिए तुम्हारे मित्र ने मुझे भेजा है। 'मुझे तो अभी तक यह पता भी न था।' यों कह कर सरलहृदय सुदर्शन तत्काल पुरोहित के यहां पहुंचे। 'सज्जन स्वयं सरल होते हैं, इसलिए दूसरे के प्रति कपट की आशंका नहीं करते।' सुदर्शन ने घर में प्रवेश करते ही पछा . 'कहाँ है. मेरा मित्र सदर्शन ?' कपिला ने कहा-आगे चलो. अंदर के कमरे में तुम्हारे मित्र सोये हुए है।' जरा आगे चल कर फिर सुदर्शन ने पूछा-'कपिल यहाँ तो है नहीं, वह गया कहाँ ? 'उनका स्वास्थ्य खराब होने से वे निर्वात स्थान में सोये हुए हैं। अत. भीतर शयनगृह में जा कर उनसे मिलो ।' शयनगृह में भी जब कपिल नहीं मिला तो सरलाशय सुदर्शन ने कहा-'भद्रे ! यह बताओ, मेरा मित्र कपिल कहाँ है ?' कपिला ने तुरत शयनगृह का द्वार बद करके सुदर्शन को पलंग पर बिठाया और उमके सामने अपने मनोहर अंगोपांग खोल कर बारीक वस्त्र से ढकने का उपक्रम करने लगी। वह चचलनयना कपिला रोमांचित हो कर अपने अधोवस्त्र की गांठ खोलने लगी और हावभाव एवं कटाक्ष करती तथा ठहाका मार कर मुस्कराती हुई बोली- यहाँ कपिल नहीं है, इसलिए कपिला की संभाल लो। कपिल और कपिला में तुम भेद क्यों करते हो ?' सुदर्शन ने पूछा --'कपिला की मुझे क्या संभाल करनी चाहिए ?' कपिला ने कहा "प्रिय ! जब से मैंने तुम्हारे अद्भुत रूप एवं गुणों की प्रशंसा सुनी है, तब से यह कामज्वर मुझं पीड़ित कर रहा है। ग्रीष्म के ताप से तपी हुई पृथ्वी के लिए जैसे मेघ का समागम शीतलतादायक होता है, वैसे ही विरहतापपीड़ित मुझं तुम्हारा समागम शीतलता. दायक होगा। मेरे आज भाग्यकपाट खुले हैं कि छल द्वारा आपका आगमन हुआ है । अतः आप मुझे स्वीकारें। मैं आपके अधीन हूं, आपको अपना हृदय समर्पित कर रही हूं। चिरकाल से कामोन्माद से व्याकुल बनी हुई मुझ पीड़िता को अपनी आलिंगनरूपी अमृतवृष्टि से सान्त्वना दे।' सुदर्शन इस अप्रत्याशित कामप्रार्थना को सुन कर हक्का-बक्का-सा हो गया । मन ही मन सोचाधिक्कार है इस निर्लज्ज नारी को ! इसका यह विचित्र प्रपंच देव के समान दुर्दमनीय है।' प्रत्युत्पन्न
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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