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________________ २०२ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश इतना परिक्लेश करता है और स्वयं उसका दुःख महसूस करता है, तब इस आत्मानुभव से परस्त्री गमन से उसके पति या सम्बन्धी को कितना दुःख होगा ; यह जान कर सुज्ञ पुरुष परदारागमन कैसे कर सकता है ? परस्त्रीगमन की बात तो दूर रही, परस्त्रीचिन्तन करना भी महाअनर्थकारी है । इसे ही बताते है 'विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिम्सया । कृत्वा कुलक्षयं प्राप नरकं दशकन्धरः ॥' अर्थ अपने पराक्रम से सारे विश्व को कंपा देने वाला रावण अपनी स्त्री के होते हए भी सीता सती को कामलोलुपतावश उड़ा कर ले गया और उसके प्रत सिर्फ कुष्टि की, जिसके कारण उसके कुल का नाश हो गया, लंकानगरी खत्म हो गई। और वह मर कर नरक में गया। इसने बड़ा पराक्रमी भी जब अपने अनर्थ का फल पा चुका तो दूसरे की तो क्या बिसात है कि उसे परस्त्रीगमन का फल नहीं मिलेगा? अतः इससे सबक लेना चाहिए परस्त्रीगमन की इच्छामात्र से रावण को नरकयात्रा राक्षस नामक दीप में पृथ्वी के मुकुटमणिसमान त्रिकूट पर्वतशिखर पर स्वर्णमयी लका नाम की विशाल नगरी थी। वहाँ पालस्त्यकुलकौस्तुभ, महाप्रतापी, विश्व का अपने पराक्रम से हिला देने वाला, विद्याधरों का अधिपति राजा रावण राज्य करता था। उसके दो वाहुस्तम्भो की तरह कुम्भकर्ण और विभीषण नामक दो अतिबलशाली भाई थे। एक दिन उसने अपने पूर्वजों से उपार्जित नौ रन पिरोई हुई एक माला देखी । मानो वह कुलदेवी हो, इस प्रकार आश्चर्यजनक दृष्टि से देख कर रावण ने वहा पुजुर्गों से पूछा - यह माला कहाँ से आई ? इसमे क्या विशेषता है ? उन्होंने कहा-"यह माला तुम्हारे पूर्वजों ने वरदान में प्राप्त की है । यह बहुत ही सारभूत और बहुमूल्य रत्नमाला है। इस माला की खूबी यह है कि जो इस गले में पहनेगा, वह अद्ध भरतेश्वर होगा। इस प्रकार कुल परम्परा से इस माला को राजा अपने ग डालता चला आरहा है । इस रिवाज के अनुसार तुम्हारे पूर्वज इसकी पूजा भी करते थे। माला की महत्ता सुन का रावण ने वह माला अपने गले में डाल ली। गले में डालते ही उसके नौ रत्नों में रावण के मुख का प्रतिबिम्ब पड़ने लगा । इसी कारण एक मुख के बजाय दस मुख दिखाई देने लगे। इसी से रावण दशमुख नाम से प्रसिद्ध हुआ। तब से लोगों ने रावण का जयजय शब्दों से अभिनन्दन किया। उस समय वह ऐसा प्रतीत होता था, मानो जगद्विजय के लिए उत्साहित हो । रावण के पास असाध्य साधना से सिद्ध की हुई प्रौढ़ सेना के समान, प्रज्ञप्ति आदि अनवद्य विद्याएं थीं। इस कारण दुःसाध्य अर्धमरत क्षेत्र को उसने एक गांव को जीतने की तरह आसानी से जीत लिया; फिर भी खुजली की तरह बाहुबलि के समान उसकी राज्यलिप्सा मिटी नहीं । पूर्वजन्म में इन्द्रत्व का अनुभव करने वाला अनेकविधासम्पन्न इन्द्र नाम का विद्याधरनूप बतादयपर्वत पर राज्य करता था। विश्व में ऐश्वर्यबल के अतिरेक और पर्वजन्म के इन्द्रत्व के अभ्यास के कारण गवित हो कर वह अपने को बहमिन्द्र समझता था । उसने अपनी पटरानी का नाम शची रखा,
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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