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________________ २०१ परस्त्रीगमन के इहलौकिक एवं पारलौकिक कुफल परस्त्रीगमन से रोकने का कारण बताते हैं-. प्राणसन्देहजननं, परमं वरकारणम् । लोक:यावर च परस्त्रीगमनं त्यजेत् ॥६६॥ अर्थ जिसमें हर समय प्राणों के जाने का सन्देह हो, जो वैर और द्वेष करने का कारण हो, ऐसे इह लोक और परलोक दोनों से विरुद्ध परस्त्रीगमन का त्याग करना चाहिए। व्याख्या परस्त्री-आसक्त व्यक्ति के प्रायः प्राण जाने का खतरा बना रहता है। हर समय उसका जी मुट्ठी में रहता है । दूसरे यह दुर्व्यसन वैर का कारण है। क्योंकि जहाँ भी वह स्त्री किसी दूसरे से प्रेम करने लगेगी, वहाँ पूर्व-पुरुष का उसके प्रति वर बंध जायगा, वह उसे अपने शत्रु मान कर उसकी जान लेने को उतारू हो जायगा। संसार के इतिहास में स्त्री के लिए बहुत वैरविरोध और झगड़े हुए हैं । और फिर इस लोक में यह नीतिविरुद्ध है, समाज की मर्यादा के खिलाफ है, ऐसे व्यक्ति की इज्जत मिट्टी में मिल जाती है। परलोक में धर्मविरुद्ध होने से इस पाप का भयंकर फल भोगना पड़ता है। परस्त्रीगमन उभयलोकविरुद्ध कैसे है ? इसे स्पष्ट करते हैं सर्वस्वहरणं बन्धं शरीरावयवांच्छदाम् । मतश्च नरकं घोरं लभते पारवारिकः ॥९७॥ अर्थ परस्त्रीगामी का कभी-कभी तो सर्वस्व हरण कर लिया जाता है, उसे रस्सी आदि से बांध कर कंद में डाल दिया जाता है, शरीर के अगोपांग पुरुषचिह्न आदि काट दिये जाते हैं, ये तीन तो इहलौकिक कुफल हैं । पारलौकिक कुफल यह है कि ऐसा पारवारिक मर कर घोर नरक में जाता है, जहां उसे भयंकर यातनाएं मिलती हैं। अब युक्तिपूर्वक परस्त्रीगमन का निषेध करते हैं स्वदाररक्षणे यत्नं विदधानो निरन्तरं । Www जनो दु.खं परदारान् कथं व्रजेत् ॥९८॥ अर्थ अपनी स्त्री की रक्षा के लिए पुरुष निरन्तर प्रयत्न करता है; अनेक प्रकार के कष्ट उसके जतन के लिए उठाता है। जब यह जानता है, तब फिर परस्त्रीगमन की आफत क्यों मोल लेता है ? स्वस्त्रीरक्षा में इतने कष्ट जानता हुआ भी कोई परस्त्रीगमन क्यों करेगा? अपनी पत्नी को कोई कुदृष्टि से देखता है, तो उसके लिए स्वयं को कितना दुःख होता है, उसके जतन के लिए दीवार, कोट, किले मादि बनाता है, स्त्री को पर्दे या बुर्क में रखता है, पहरेदारों को रख कर येन केन प्रकारेण उसकी रक्षा करता है। अपनी स्त्री की रक्षा में भी मनुष्य रात-दिन जब
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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