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________________ लंकापति रावण और वैताढ्यपति इन्द्र के परस्पर युद्ध में रावण की विजय २०३ शस्त्र का नाम वज्र, पट्टहम्ती का नाम ऐरावण, घोड़े का नाम उच्चःश्रवा, सारथि का नाम मालि और चार महासूभटों का नाम सोम. यम, वरुण और कुबेर रखा। वह स्वयं को इन्द्र मानने के कारण इसरों को तिनके के समान मानता था। भयंकर योद्धा होने से वह रावण को भी अपने साम झता था । यमराज के समान बलशाली रावण को जब यह पता चला तो वह उस पर कुद्ध होकर श्रावण के मेवों की-मी गर्जना करता हुआ उक्त इन्द्र राजा से युद्ध करने चला। विद्या के प्रभाव से जल, स्थल और नभ तीनों प्रकार की सेना को ले कर समुद्र पार करके प्रलयकाल के तूफान की तरह उमड़ते हुए संन्यरूपी अन्धड़ से उड़ी हुई धूल से आकाश को आच्छादित करते हुए एकदम वैताढ्य पर पहुंचा । रावण को आते देख कर इन्द्र भी सामने आया. क्योंकि मैत्री और वैर में पुरुषों का सम्मुख आना प्रथम कर्तव्य है। महापगक्रमी रावण ने इन्द्र राजा के पास दून भेज कर मधुर शब्दों मे सदेश कहलवाया-"यहां कितने ही भुजबल के अभिमानी अथवा विद्याधर शासक हो गए हैं । उन सबने उपहार भेज कर दशकन्धर राजा रावण की सेवाभक्ति की है। रावण द्वारा विस्मृत हो जाने और आपकी सरलना के कारण इतना समय व्यतीत हो गया है । अब उनकी सेवा करने का समय आ गया है । अत. आप उनके प्रति या तो भक्ति बताइये, या आप उनके साथ युद्ध करके शक्ति बताइए।" यदि भक्ति या शक्ति दोनों में से आप एक भी नहीं बतायेंगे तो आपका सर्वस्व नष्ट कर दिया जाएगा। राजा ने सुन कर दूत से कहा -'बेचारे गरीब राजाओं ने उसकी सेवाभक्ति कर दी होगी। किसी बड़े सत्ताधारी से उसका वास्ता नहीं पड़ा होगा । अब वह मदोन्मत्त हो कर मुझसे सेवापूजा कराना चाहता है। अब तक रावण का समय किसी प्रकार सुखपूर्वक व्यतीत हुआ, अब मालम होता है उसके नाश होने के दिन बाकी रह गये हैं । अतः अपने स्वामी से जा कर कह देना कि अगर वह भला चाहता है तो मेरे प्रति भक्ति बताए, अन्यथा शक्ति बताए । अगर भक्ति और शक्ति दोनों में से किसी भी एक को नहीं बतायेगा तो समझ लो, उसका विनाश निश्चित है।" दूत ने आ कर रावण को सारी हकीकत मुनाई । सुनते ही क्रोध से प्रलयकाल के क्षुब्ध समुद्र के समान भयंकर बना हुआ रावण अनन्तसैन्यरूपी उछलती लहरों के साथ युद्ध के मैदान में आ डटा । दोनों पक्ष की सेनाओं का बड़े भारी संघर्ष के साथ युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोनों ओर मे शस्त्रवर्षा ऐमी लगती थी, मानो सवर्तकपुष्करावर्त मेघ-वृष्टि हो रही हो। रावण को नमस्कार करके रावणपुत्र मेघनाद ने युद्ध के लिए इन्द्र को ललकारा। 'वीरपुरुष युद्धक्रीड़ा में किसी को अग्रपद नहीं देते।' दोनों में से कौन-सा विजयी होगा, इसका फैसला करने के लिए उभयपक्ष की सेना को दूर करके रावणपुत्र और इन्द्र दोनों ही वीर परस्पर द्वन्द्वयुद्ध करने लगे। दोनों युद्धनद को पार करने हेतु परस्पर शस्त्रप्रहार करने लगे। वे फुर्ती से एक-दूसरे को पछाड़ देते थे, इस कारण यह पता लगाना कठिन होता था कि मेघनाद ऊपर है या नीचे ? अथवा इन्द्र ऊपर है या नीचे ?" विजयश्री भयभीत-सी हो कर क्षणभर में इन्द्र के पास और दूसरे ही क्षण मेघनाद के पास चली आती थी । इन्द्र जब तब अभिमान से मशक की तरह फूल कर शस्त्रप्रहार करने को उद्यत होता, तब तक मेघनाद पूरी ताकत से उस पर हमला कर देना । और तत्काल ही मेघनाद ने इन्द्र को नीचे गिरा कर बांध लिया । 'विजयाकांक्षी मनुष्य की जय में पहला कारण आशुकारिता (फुर्ती) होती है।' सिंहनाद से आकाश को गुजाते हुए मेघनाद ने मूर्तिमान विजय की तरह बांधे हुए इन्द्र को अपने पिता रावण के सुपुर्द किया। रावण ने भी उसे प्रबल सुरक्षा से युक्त कारागार में डाल दिया । क्योंकि बलवान दोनों कार्य करता है-वह मारता भी है तो रक्षा भी करता है। इतने में ही इन्द्र को पकड़ने से क्रोधित हो कर यमराज, वरुण, सोम और कुबेर, इन चारों इन्द्र सुभटों ने तत्काल आ कर रावण को घेर लिया। विजयाकांक्षी रावण भी चौगुना
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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