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________________ २०० योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश व्याख्या साधुधर्म को स्वीकार करने के अभिलाषी और देशांवरति-धर्म के परिणामी गृहस्थ श्रमणोपासक को गृहस्थजीवन में भी प्रबल वैराग्यभावना से रहना चाहिए। अपनी पत्नी में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। ऐसा विधान है, तो फिर सर्वपापों की खान परस्त्रीसेवन के त्याग के बारे में तो कहना ही क्या ? वह त्याग तो पहले से ही होना चाहिए। परस्त्री में निहित पापों के बारे में कहते हैं - स्वपति या परित्यज्य निस्त्रपोपति भजेत् । तस्यां क्षणिकचित्तायां विश्रम्भः कोऽन्ययोषिति ॥१४॥ अर्थ जो स्त्री अपने पति को छोड़ कर निर्लज्ज हो कर दूसरे के साथ सहवास करती है, उस चंचल चित्त वाली स्त्री पर कौन भरोसा कर सकता है ? व्याख्या श्रति में बताया है - "भर्तृ देवता हि स्त्रियः अर्थात्-स्त्रियो के लिए पति ही देवता होते हैं । परन्तु जो अपने पति को देवस्वरूप न मान कर पतिभक्ति को तिलांजलि दे कर बेशर्म हो कर अपने यार (उपपति) के साथ बेखटके सहवास करती है, ऐसी क्षणिक चित्त वाली परस्त्री का क्या विश्वास ? वह कभी भी धोखा दे सकती है। अब परनारी में आसक्त पुरुप को शिक्षा देते हैं -- भीरोराकुलचित्तस्य दुःस्थितस्य परस्त्रियाम् । रतिर्न युज्यते कर्तुमुपशूलं पशोरिव ।।९५॥ अर्थ परस्त्री में रत मनुष्य सदा भयभीत रहता है, उसका चित्त घबड़ाया हुआ-सा रहता है, और वह खराब स्थिति में रहता है, इसलिए ऐसे परस्त्रीलम्पट का परस्त्री के पास रहना बसा ही खतरनाक है, जैसा कि मारे जाने वाले पशु का शूली के पास रहना । मतलब यह कि सद्गृहस्थ का परनारी से नेह करना जरा भी उचित नहीं है। व्याख्या परस्त्री से प्रीति करना बिलकुल उचित नहीं है। क्योंकि परस्त्रीलम्पट हमेशा उस स्त्री के पति, राजा या समाज के नेता आदि से भयभीत रहता है कि कहीं मुझे ऐसा करते हुए कोई देख न ले। इसी कारण वह हमेशा घबराया हुआ रहता है। उसके चित्त में हमेशा यही शक बना रहता है कि कहीं सरकार या सरकारी पुलिस आदि को मेरे इस कुकर्म का पता लग गया तो मेरी खैर नहीं ! इसलिए वह जगह-जगह भागता फिरता है, और वीहड़ों, ऊबड़खाबड़ खोहों, खण्डहरों, एकान्तस्थानों या सूने देवालयों में छिपता रहता है, जहाँ न तो उसे सोने को ही ठीक से बिछौना मिलता है, न खाने पीने का ही ठिकाना रहता है, और न नींद सुख से ले पाता है । इसीलिए कहा गया कि परस्त्रीलम्पट शली के पास वष होने के लिए खड़े किये गए अमागे पशु के समान है, जिसका जीव हर समय मुट्ठी में रहता है । अतः परस्त्री से प्रीति करना सद्गृहस्थ के लिए सर्वथा वर्जनीय हैं।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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