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________________ १६० योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश पकड़ा गया था। इसलिए इसके बारे में यथोचित सोच कर फिर इसे दण्ड देना चाहिए।" अत राजा ने रोहिणय से पूछा "बोलो जी, तुम कहां के हो ? तुम्हारा पेशा क्या है? यहाँ किस प्रयोजन से आए हो ? ?" 'तुम रोहिणेय तो नही हो न ?' अपना नाम सुनते ही सशंक हो कर उसने मन ही मन कुछ सोच छूटी हुई मछनी जैसे जाल में कर राजा से कहा- 'मैं शाली गांव का दुर्गचण्ड नामक किसान हूं। किसी काम से राजगृह आया था, शाम हो जाने के कारण कौतुकवश एक मन्दिर में रात बिताई थी। सुबह होने से पहले ही जब मैं अपने घर जा रहा था, तभी राक्षस की तरह राज-राक्षस ने किला पार करते हुए मुझे घेर कर पकड़ लिया । मुझे अपने प्राणों का सबसे अधिक भय है । अतः मच्छीमार के हाथ से फंसा कर पकड़ ली जाती है, वैसे ही नगर के अन्दर गश्त लगा रहे राज राक्षमों के पंजे से छूटा हुआ मैं शहर के राज राक्षसों द्वारा पकड़ लिया गया हूं। फिर निरपराध होते हुए भी मुझे चोर समझ कर गे यहां ले आये हैं । अब आप ही कृपा करके न्यायाधीश बन कर मेरा व्याय करें ।" सुन कर उसके बताए हुए गांव में उसकी जांच पडताल करने के लिए एक विश्वस्त तक रोहिणेय को कारागार में बन्द करके रखने का आदेश दिया । राजा ने उसकी बात आदमी भेजा, तब अप्सरातुल्य रमणियों से अलंकृत देवलोक चोर ने भी उस गांव में पहले से सकेत कर दिया था। चोरों को भी पहले से भविष्य का कुछ-कुछ पता लग जाता है। राजपुरुषों ने उस गाँव में जा कर पता लगाया तो गाँव वाले लोगों ने कहा- हां. दुर्गथंड नाम का एक किसान पहले यहाँ रहता था, अब वह दूसरे गाँव गया है।' राजपुरुषों ने आ कर राजा से सारी हकीकत कही। इस पर अभयकुमार ने सोचा चतुराई से किये हुए दम्भ का पता तो विधाता को भी नहीं लग सकना। अतः अभयकुमार ने एक कुशल कारीगर को बुला कर उसे मारी योजना समझा कर गुप्तरूप से एक रत्न जटिन बहुमूल्य देवविमान के समान सात मजला महल तैयार करवाया। तैयार होने पर वह ऐसा लगता था मानो से अमरावती का एक टुकड़ा अलग हो कर यहाँ गिर पड़ा हो। जब गन्धर्व लोग वहाँ एकत्रित हो कर संगीत, नृत्य, और वाद्य से संगीत महोत्सव करने लगे, तब तो इस महल ने गन्धर्वनगर-की-सी अद्भुत शोभा धारण कर ली। यह सब हो जाने पर एक दिन अभयकुमार ने चोर को दूध के समान सफेद चन्द्रहाम मदिरा पिला कर बेहोश कर दिया। बेहोशी हालत में ही उसे देवद्रूष्य वस्त्र पहना दिये गये और उसी महल में ले जा कर देवों की मी पुष्पशय्या पर लिटा दिया गया जब वह होश में आया और बैठा तो उसने अपने चारों ओर दिव्यांगनाओं और देवकुमारों का जमघट देखा, मधुरवाद्य गीत और नृत्य का झंकार सुना तो आश्चर्य विस्फारित नेत्रों से देखने लगा। अभयकुमार के पूर्व संकेतानुसार और कहने लगे - 'अभी-अभी उपस्थित दिव्यवस्त्रधारी नरनारियों ने उच्च स्वर से जय-जयकार किया। आप इस महाविमान में देवरूप में उत्पन्न हुए हैं। आप हमारे स्वामी हैं, हम आपके सेवक हैं। आप इन्द्र के समान इन देवांगनाओं के साथ यथेष्ट क्रीड़ा करें।' इस प्रकार चातुर्य और स्नेहगभित वचनों से उन्होंने कहा । चोर ने सोचा- क्या मैं देव हुआ हूँ ।' इतने में ही सभी नरनारियों ने ताली बजाते हुए ताल और लय से युक्त संगीत छेड़ा। तभी स्वर्णधारी एक पुरुष ने वहाँ आ कर कहा- 'यहाँ तुमने क्या प्रारम्भ किया है ?' उन्होंने प्रतिहार से कहा- 'हम अपने स्वामी को अपना विज्ञानकोशल बता रहे हैं।' वह बोला- अपने स्वामी को विज्ञानकोशल बताना तो अच्छा है, लेकिन देवलोक के आचार का इनसे पालन कराओ तब उन्होंने पूछा- 'कौन-सा बाचार ?' यह सुन कर उस पुरुष ने रौब दिलाते हुए कहा- 'वाह! यह बात भी भूल गये तुम ? यहाँ जो भी नया देव उत्पन्न होता है, उससे अपने पूर्वजन्म का अच्छे-बुरे कार्य का विवरण पहले पूछा जाता है, तत्पश्चात् स्वर्गसुख भोगने की
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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