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________________ रोहिणेय चोर के आतंक से राजा और प्रजा सब परेशान १८१ उपदेश दे रहे थे । दैवयोग से उसी समय रोहिणेय किसी कार्यवश राजगृह की ओर जा रहा था। रास्ते में ही भगवान् का समवसरण पड़ता था। अत रोहिणय ने सोचा - "अगर इस मार्ग से जाऊगा तो अवश्य ही महावीर के वचन कानों में पड़ेंगे, इससे पिताजी की आज्ञा का भी भंग होगा। परन्तु दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं है।" ऐसा सोच कर रोहिणय दोनों हाथों से अपने कान बंद करके जल्दी-जल्दी राजगृह की ओर जाने लगा। इस तरह हमेशा जाते-जाते एक दिन ममसवरण के पास ही अचानक पैर में कांटा गड़ गया । जल्दी चलने के कारण कांटा गहरा गड़ गया। बडी पीड़ा होने लगी। उमे निकाले बिना चला नहीं जा रहा था। फलतः कांटा निकालने के लिए उसने कानों पर से हाथ हटाया और नीचे पैरों के पास ले जा कर कांटा खींचने लगा । इसी दौरान प्रभु की वाणी उसके कानों में पड़ गई - "देवता पृथ्वीतल का स्पर्श किये बिना चार अंगुल ऊपर रहते है। उनकी आंखों की पलकें झपनी नही, उनकी फलमाला मुझती नहीं और उनके शरीर में मैल व पमीना नहीं होता।" इतना सुनते ही वह पश्चात्ताप करने लगा-"ओह ! मैंने तो बहुत-से वाक्य सुन लिए हैं, धिक्कार है मुझे !" यो मन ही मन कहता हआ झटपट कांटा निकाल कर फिर दोनों हाथों से कान बंद करके आगे चलने लगा। इस तरह वह चोर प्रतिदिन गजगृह में आता-जाता और चोरी करता था। एक दिन नगर के धनाढ्य लोगों ने आ कर श्रेणिक राजा से शिकायत की-'महाराज ! आप सरीखे न्यायी राजा के राज्य में हमें और कोई तकलीफ नहीं, मिर्फ एक बड़ा भारी कष्ट है कि चोर हमारा धन चुरा कर अदृश्य हो जाते हैं।" ढूढ़ने पर भी पता नहीं लगता।" प्रजा की पीड़ा सुन कर बन्धु के समान दुःखित राजा श्रेणिक ने क्रुद्ध हो कर कोतवाल से कहा-मालूम होता है चोर के हिस्सेदार बन कर तुम चोरों की उपेक्षा करते हो, वेनन मेग खाते हो, काम चोरों का करते हो । इस तरह से जनता का धन दिनों दिन चुराया जा रहा है।" कोतवाल ने दुःखपूर्वक कहा -- क्या बताऊँ देव ! रोहिणय नामक एक चोर है ; जो नागरिकों को लुट रहा है। वह इतना चालाक है कि बंदर की तरह, विद्युत् की चमक के समान पूद-कूद कर क्रमशः एक घर से दूसरे घर और वहां से किला आसानी से लांघ लेता है । हम वहाँ पहुंचते हैं, तब तक वह वहां से गायब हो जाता है। हम एक कदम चलते है, इतने में वह सौ कदम चल लेता है । उस चोर को पकड़ने और मारने में हमारा वश नहीं चलता । उसे पकड़ना तो दूर रहा, देख पाना भी मुश्किल है । आप चाहें तो कोतवाल का हमारा अधिकार हमसे ले लें।" यह सुन कर राजा ने आंख के इशारे से अभयकुमार को चोर को पकड़ने का संकेत किया । उसने कोतवाल से कहा-"कोतवालजी ! आज नगर के बाहर चतुरगिणी सेना तैयार करके रखना। जब चोर नगर में प्रवेश करने लगे, तभी उसे सेना चारों ओर से घर ले। अंदर विद्य दुत्क्षिकरण करते हुए घबराए हुए हिग्न की तरह वह पकड़ा जायगा । अतः जब वह आए तभी उसके परों की आहट से उसके आगमन का पता लगते ही उस महाचोर को अप्रमत्त सैनिक पकड़ लें।" 'आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।' यों कह कर कोतवाल वहां से रवाना हुआ । बुद्धिमान कोतवाल ने गुप्तरूप से सेना तैयार की। संयोगवश उस दिन रोहिणेय दूसरे गाँव गया हुआ था । अतः नगर के बाहर सेना का पड़ाव है, इसे न जानने के कारण जैसे अनजान हाथी गड्ढे में गिर जाता है, वैसे ही रोहिणेय सेना के घेरे में आ गया और पकड़ा गया । घेरे के साथ ही उसने नगर में प्रवेश किया। इस उपाय से चोर को पकड़ कर और बांष कर कोतवाल ने राजा के सुपुर्द किया। राजा ने आशा दी--' जैसे न्याय सज्जन की रक्षा और दुर्जन को सजा देता है, वैसे ही इसे सजा दो।" इस पर अभयकुमार ने कहा-' महाराज ! अभी तक यह बिना चोरी किये, अकेला ही
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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