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________________ विपत्ति के मारे मूलदेव द्वारा वेश्या-गृहत्याग १८१ ; बहुत-सा धन दे कर खरीद क्यों नहीं लेता ?" मूलदेव भी हबका-बक्का मा आँखें मूदे चुपचाप खड़ा रहा; वह उस समय कोई स्थानभ्रष्ट किसी भेड़िये की-मी अपनी हालत महमूस कर रहा था । अचल ने एका एक विचार किया कि यह महात्मा देववश ऐसी स्थिति में आ पड़ा है इसलिए इसका निग्रह ( दंड दे कर काबू में) करना उचित नहीं है अतः उसने मूलदेव से कहा- मूलदेव! मैं आज तक के तेरे किये हुए अपराधों को माफ करता हूं। अगर तू कृतज्ञ है तो इसके बदले समय आने पर मेरे पर उपकार करना ।' यों कह कर उसने मूलदेव को छोड़ दिया। झटपट चल पड़ा और कुछ ही के बाद धोये हुए श्वेत स्नान युद्ध में घायल हुए हाथी के समान मूलदेव वहाँ से निकल कर देर में गाँव के बाहर पहुंच कर उसने एक महासरोवर में स्नान किया। वस्त्र पहनने पर वह शरद् ऋतु-सा शोभायमान हो रहा था। अचल पर उपकार या अपकार करने के विचाररूपी मनोग्य पर आरूढ़ मूलदेव वहाँ में वेणातट की ओर चला। रास्ते में दुर्दशा की प्रिय सखी के समान बारह योजन लम्बी और हिंस्र पशुओं से भरी हुई अटवी आ गई। वह चाहना था, महासमुद्र को पार करने के लिए जैसे नौका सहायक होती है, वैसे ही मुझे इस लबी अटवी को पार करने में कोई सहायक मिल जाय । ठीक उभी समय मानो आकाश से टपक पड़ा हो, इसी तरह टक्क नाम का एक ब्राह्मण भोजन की पोटली हाथ में लिए यकायक वहाँ आ निकला । वृद्धपुरुष को लाठी का सहारा मिल जाने की तरह असहाय मूलदेव को भी इस ब्राह्मण का सहारा मिल जाने से वह बहुत खुश हुआ। मूलदेव ने ब्राह्मण से कहा - "विप्र ! इस अटवी में असहाय पड़े हुए मेरी छाया के समान मुझे आप भाग्य से मिल गए हैं। की अतः अब हम दोनों यथेष्ट बाते करते हुए इस अटवी को शीघ्र ही पार कर लेंगे। कथा रास्ते को थकान को मिटा देती है। इस पर ब्राह्मण ने पूछा "महाभाग ! पहले यह तो बताओ कि तुम्हें कितनी दूर और किस जगह जाना है ? और मेरी मार्ग मंत्री को स्वीकार करो। मुझे तो इस जंगल के उस पार ही 'वीरनिधान' नामक नगर में जाना है तुम्हें कहाँ जाना है, वह कहो।" मूलदेव ने कहा'मुझे वेणातट नगर में जाना है।' विप्र ने सुनते ही कहा- "तब तो ठीक है। बहुत दूर तक हमारा राग एक ही है, तो लो चलें।" मिर को अपने प्रखर ताप से ताने वाला सूर्य मध्याह्न में आ गया, तब तक वे दोनों एक सरोवर के तट पर पहुंचे। मूलदेव उसमें हाथमुंह धो कर थकान मिटाने के लिए एक ऐसी छायादार जगह पर बैठ गया, जहां धूप नही लगती थी । ब्राह्मण ने भी अपनी पोटली खोली पानी से लगा कर खाने लगा। धूर्त ने मालूम होता है, इसे परन्तु ब्राह्मण तो बहुत कड़ाके की उसकी इस आशा सोचा- 'आज इसी आशा ही और उसमें से भोजन निकाल कर कृपण की तरह अकेला ही सोचा- पहले मुझे दिये बिना ही यह अकेला खाने बैठ गया है। भूख लगी है। सम्भव है, भोजन कर लेने के बाद यह मुझे देगा । के विपरीत भोजन करते ही चटपट अपनी पोटली बांध कर खड़ा हो गया । मूलदेव ने नहीं तो बल देगा ।' मगर दूसरे दिन भी ब्राह्मण ने उसी तरह अकेले ही भोजन किया। आशा में मूलदेव के तीन दिन बीत गए । 'पुरुषों के लिए आशा हो तो जीवन होता है। जब दोनों के मार्ग बदलने का अवसर आया तब ब्राह्मण ने धूर्तराज से कहा लो, भाग्यशाली ! अब मेरा और तुम्हारा रास्ता अलग-अलग है। मैं अपने मार्ग पर जाता हूँ । तुम्हारा ने भी कहा. "विप्रवर तुम्हारे सहयोग से मैंने बारह योजन लंबी ! की तरह पार कर ली। अब मैं वेणातट जाऊंगा। मेरे योग्य कोई नाम मूलदेव है। यह तो बताओ कि आपका नाम क्या ?' उसने कहा कल्याण हो !' इस पर मूलदेव इस भयंकर अटवी को एक कोस काम हो तो जरूर कहना । मेरा मेरा असली नाम तो सधड़
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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