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________________ १८० योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश निश्चित किया और अचल से कहा- "सार्थवाह ! तुम दूसरे गांव जाने का झूठा बहाना करना और देवदत्ता को विश्वास दिला कर यह कहते हुए चले जाना कि मैं गांव जा रहा हूं।" तुम्हें दूसरे गांव गया हुआ जान कर धूर्त मूलदेव बेधड़क हो कर देवदत्ता के पास आएगा । जिस समय देवदत्ता के साथ निश्चित हो कर क्रीड़ा करता हो, ठीक उसी समय तुम मेरे संकेत के अनुसार सर्व सामग्री ले कर यहाँ चले आना और सीधे उसके कक्ष में पहुंच कर किसी भी रूप से उसे अपमानित करना ; जिससे तीतरतीतरी के समान देवदत्ता के साथ फिर वह विषयसुम्वानुभव नहीं कर सकेगा।" अवल ने वैसा ही करना स्वीकार किया। इस मंत्रणानुसार एक दिन अचल ने देवदत्ता से कहा- 'मैं अमुक गांव को जाता हूं।' यों कह कर द्रव्य ले कर वह चला गया। उमके जाते ही देवदत्ता ने निःशंक हो कर मूलदेव को प्रवेश कराया। कुटिनी ने सेवकों के साथ अचल को बुलवाया । अचल का अकस्मात् प्रवेश देख कर देवदत्ता ने मूलदेव को पलंग के नीचे उसी तरह छिपा दिया, जैसे पत्तों को टोकरी के नीचे छिपा देते हैं । अचल मुस्कराता हुआ पन्हथी मार कर पलंग पर बैठ गया और बहाना बनाते हुए बोला "देवदत्ते ! आज में बहुत थक गया हूं, इसलिए गर्म पानी से यही बैठा-बैठा स्नान करूंगा। तुम तैयार हो जाओ। विस्मित और चकित. सी देवदत्ता कृत्रिम मुस्कराती हुई बोली-'स्नान करना है तो आप स्नानगृह में पधारें।' यों वह कर हाथ के सहारे से उसे आदरपूर्वक उठाने का प्रयत्न किया। लेकिन अचल तो पलंग पर ही आसन जमा कर बैठ गया । इसी बीच धूर्तराज न तो पलंग के नीचे से निकल सका और न ही वहाँ ठीक से बैठा रह सका । मन जब अस्वस्थ रहता है, तब प्रायः शक्तियां भी घट जाती है।' इतने में फिर अचल ने कहादेवदत्ता ! आज मुझे स्वप्न आया था कि मैंने मालिश के समय पहने हुए वस्त्रसहित पलंग पर ही स्नान किया । अत: मैं अपने उस स्वप्न को सार्थक करने के लिए ही झटपट चला आया हूं । इस स्वप्न को यदि मैं सार्थक कर दूंगा तो मेरे पास शुभ समृद्धि बढ़ जाएगी।" यह सुनते ही कुट्टिनी ने समर्थन करते हुए कहा- "बंटी ! ऐसा ही कर ! अपने प्राणश की आज्ञा तू क्यों नहीं मानती ? क्या तू ने नहीं सुना कि --- "पतिव्रता स्त्रियां अपने स्वामी की इच्छानुसार कार्य करती हैं।' देवदत्ता ने अचल से कहा-'आर्य ! ऐसे रेशमी देवदूष्य वस्त्र की कीमती गद्दी को बिगाड़ना आप जैसे समझदार के लिए उचित नहीं मालूम होता।" अचल ने कहा-'भद्रे ! ऐसी कंजूसी दिखाना तेरे लिए ठीक नहीं हैं । तुम सरीखी स्त्रियां पति को जब अपना शरीर अर्पण कर देती हैं, तब इस गद्दी की चिन्ता क्यों करती हो ? जिसका स्वामी अचल है, उसे किस बात की कमी है ? जिमका मित्र समुद्र हो, उसे नमक को क्या कमी हो सकती है ?" इस पर धन के अधीन बनी हुई देवदत्ता ने पलंग पर बैठे हुए अचल के शरीर पर तेल मालिश किया और वहीं स्नान कराया । अचल को स्नान करते समय मूलदेव स्नान के मैले पानी आदि से चारों ओर से उसी तरह तरबतर हो गया, जैसे महादेव को स्नान कराते समय उनका सेवक चंड हो गया था। कुटिटनी ने अचल के सेवकों को आंख के इशारे मे बुलाया और धर्त को पलंग के नीचे से खींच कर निकालने की अचल को प्रेरणा दी। जैसे कौरव ने द्रौपदी के केश पकड़ कर उसे खींचा था, वैसे ही अचल ने मूलदेव के केश पकड़ कर कोपायमान हो कर खींचा। और उससे कहा- "नालायक ! तू खुद को नीतिज्ञ और बुद्धिमान समझता है, फिर आज कैसे फंस गया ? अब बता तुझे अपनी करतूत के अनुसार क्या सजा दूं?" अगर तू धन से वश हो जाने वाली वेश्या के साथ क्रीड़ा करना चाहता है तो जिस प्रकार धनाढ्य जमींदार धन देकर गांव खरीद कर अपनी जागीरी बना लेता है, उसी प्रकार इसे
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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