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________________ १८२ योगमास्त्र : द्वितीय प्रकाश विप्र है, लोग मुझे निषूण शर्मा के नाम से पुकारते हैं।' यों कह कर साथी टक्क मूलदेव से अलग हो गया। अब मूलदेव अकेला ही वेणातट के रास्ते पर चल पड़ा। रास्ते में प्राणियों के विश्रामस्थल की तरह एक गांव नजर आया । भूख से व्याकुल मूलदेव के पेट से आंतें लग गयी थीं । उसने गांव में प्रवेश किया, और भिक्षा के लिए घूमते हए उसे एक घर से उडद के बाकले मिले। वह उन्हें ही ले कर गांव से बाह हर निकल रहा था कि सामने से पुण्यपुज के समान एक मासिकोपवासी मुनि आते हए दिखाई दिए । उन्हें देख कर मूलदेव बहुत हर्षित हुआ। सोचा-- मेरे ही किसी पुण्योदय से आज समुद्र से तारने वाले पानपात्र (जहाज) के समान संसारसमुद्र से तारने वाले उत्तम तपस्वी मुनिरूपी पात्र मिले हैं।" रत्नत्रयधारी मुनिवर को पात्र में उसने वे उड़द के बाकुले भिक्षा के रूप में इस भावना से दिये कि दीर्घकाल से सिंचित विवेकवृक्ष का फल आज मुझे मिले ।' दान देने के बाद मूलदेव ने कहा- 'सचमुच वे धन्य है; जिनके बाकुले साधु के पारणे के काम आते हैं।" मूलदेव की भावना से पित होकर एक देव ने आकाशवाणी से कहा-"भद्र ! तुम आषा श्लोक रचकर मांगो कि मैं तुम्हें क्या दूं?" मूलदेव ने उक्त देव से निम्न अद्ध श्लोक रच कर प्रार्थना की-"गणिका-देवदत्तम-सहन राज्यमस्तु मे" अर्थात देवदत्ता गणिका और हजार हाथियों वाला राज्य मुझे प्राप्त हो ।' देव ने कहा- 'ऐमा ही होगा।" मूलदेव भी मुनि को वन्दन करके गांव में गया और भिक्षा ला कर स्वय ने भोजन किया। इस तरह गस्ता तय करते हुए वह क्रमश वेणातट पहुंचा। वहां एक धर्मशाला में ठहरा। थकान के कारण उसे गहरी नींद आगई । सुखनिद्रा मे सोते हुए रात्रि के अन्तिम पहर में उसने एक स्वप्न देखा--' पूर्णमंडलयुक्त चन्द्रमा ने मेरे मुख में प्रवेश किया है ।" यही स्वप्न उस धर्मशाला के किसी अन्य यात्री को भी आया था। वह भी स्वान देखते ही जाग गया और उसने अन्य यात्रियों को अपना सपना कह सुनाया । उन यात्रियों में से एक ने स्वप्नशास्त्र के अनुसार विचार करके उमसे कहा तम्हें शीघ्र ही खीर और घी के मालपुए मिलेंगे।" इस सुन कर प्रसन्न हो कर यात्री ने कहा- 'ऐसा ही हो।" मच है सियार को बेर भी मिल जाय तो वह महोत्सव के समान खुशियां मनाता है ।" धूर्तराज ने भी ग्वप्न का फल सुन लिया था, इसलिए उसने किसी को अपना स्वप्न नहीं बताया । उसने सोचा"मुखों को रत्न बनाने से वे उसे कंबड-पत्थर ही बताएंगे।' उस यात्री को गृहाच्छादन पर्व के दिन मालपा खाने को मिले। स्वप्नफल प्रायः आने विचार के अनुसार ही मिला करना है। धर्तराज भी सुबह-सुबह एक बगीचे में पहुंचा । वहाँ फन चुनते हुए एक माली के काम में सहायता करने लगा। इससे माली खुश हो गया । 'ऐसा कार्य लोगों के लिए प्रीतिकारक होता ही है।' माली में फल-फल ले कर स्नानादि मे शुद्ध हो कर वह स्वप्नशास्त्रज्ञ पण्डित के यहां गया। मूलदेव ने स्वप्नशास्त्रज्ञ पण्डित को नमस्कार किया और उन्हें फल, फल भेंट दे कर अपने स्वप्न का हाल बताया। स्वप्नशास्त्रज्ञ ने प्रसन्न हो कर कहा-'वन्स ! मैं तुम्हारे स्वप्न का फल शुभ मुहूर्त में बताऊंगा । आज तुम मेरे अतियि बनो।' यों कह कर मलदेव को आदरपूर्वक बिठाया, यथासमय भोजन कराया। तत्पश्चात् पण्डित ने अपनी कन्या विवाह के लिए मूलदेव के सामने ला कर प्रस्तुत की। यह देख कर मूलदेव ने कहा-'पिताजी ! आप मेरे कल, जानि आदि से परिचित नहीं, फिर अपनी कन्या देते हुए कुछ विचार क्यों नहीं करते ?" उपाध्याय ने कहा-'वत्स ! तुम्हारी आकृति से तुम्हारे कुल और गुण नजर आ रहे हैं । इसलिए अब शीघ्र ही मेरी कन्या स्वीकार करो।" उपाध्याय के आग्रह पर मूलदेव ने उसकी कन्या के साथ विवाह किया । मानो भविष्य में होने गली कार्यसिद्धि का मुख्य द्वार खुल गया हो। फिर उपाय ने उसे स्वप्नफल बताते
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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