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________________ मूलदेव और देवदत्ता का परस्पर गाढ़ अनुराग I गुण दे मांगती तो कदम्ब का टुकड़ा तुम बुरा मत मानना । कंटीले पेड़ का आश्रय ले कर उससे १७६ सार्थवाह रहता था ; वह मूलदेव से पहले देवदत्ता से प्रेम करता था; और उसके साथ सुखानुभव करता था । वह मूलदेव के साथ ईर्ष्या करता था, और किसी न किसी बहाने से दोष ढूंढ कर उपद्रव करना चाहता था । मूलदेव के कानों में इस बात की भनक पड़ी। वह भी किसी बहाने से इसके घर जाना रहता था । रागी पुरुषों का राग परवश होने पर भी प्रायः नहीं छूटता । एक दिन देवतत्ता की माता ने उससे कहा-बेटी ! इस निर्धन जुआरी मूलदेव के पास अब क्या रखा है ? इससे प्रेम करना छोड़ दे । प्रतिदिन द्रव्य देने वाले इस धनकुबेर अचल में ही रम्भा की तरह दृढ़ अनुराग रख ।' देवदत्ता बोली - "माताजी ! मैं केवल धन की अनुरागिनी नहीं हूं, अपितु मैं गुणानुरागिनी हूं।" इस पर क्रुद्ध हो कर माना ने कहा 'भला, इस जुआरी में कोई गुण हो सकता है ? सोच तो मही ।" देवदत्ता ने कहा " इसमें क्यों नहीं है ? यह धीर है, उदार है, प्रियभाषी है । अनेक विद्याओं और कलाओं का विशेषज्ञ है, गुणानुरागी है, स्वयं गुणज्ञ है, इसलिए इसका आश्रय मैं कैसे छोड़ सकती हूं? मुझमे इसका त्याग नही होगा ।" तब मे कपटकला प्रवीण कुट्टिनीमाता ने मूलदेव के प्रति अपनी पुत्री की प्रीतिभंग करने के विविध उपाय अजमाने शुरू किए। जब देवदत्ता उसके लिए पुष्पमाला मांगती तो वह उसे मुर्झाए हुए वामी फूलों की माला दे देती, शरबत मांगती तो रंगीन पानी की बोतल उठा कर दे देती, ईख के टुकड़े मांगती तो वह बांम के नीरस टुकड़े दे देती ; चंदन देती । और ऊपर से उसे यों समझानी - "बेटी ! मैं जो कुछ कर रही हूं, जैसा देव (यक्ष) होता है, तदनुमार ही उसे बलि (भेंट) दी जाती है। जैसे बेल बड़े दुःख से रहती है, वैसे ही तू इसका आश्रय क्यों लिये बैठी है ? मेरी समझ से अपात्र मूलदेव को तुम्हें गर्वया छोड़ देना चाहिए। इस पर देवदत्ता झुंझला कर बोली - "बिना ही परीक्षा किए किसे पात्र कहा जाय किसे अपात्र ?" माता भी उत्तेजित स्वर में बोली - "तो फिर परीक्षा क्यों नहीं कर लेती इनकी ?" देवदत्ता ने हृपित हो कर अपनी दासी को आदेश दे कर अचल को कहलवाया - 'आज देवदत्ता ईख खाना चाहती है, अतः ईख भिजवा देना ।" दासी ने जा कर अचल सार्थवाह से कही तो उसने यह बात सुनते ही अपने को धन्य माना और फौरन सहर्ष ईख की गाड़ियाँ भर कर ढेर-सी भिजवा दी । यह देख कर कुट्टिनी ने अपनी पुत्री देवदत्ता से कहा- देख बेटी ! अचल चिन्तामणि की तरह कितना उदार और वांछित फलदायक है । जरा इसकी ओर विचार करो ।" खिन्न देवदत्ता ने माता से कहा'क्या मैं हथिनी हूं कि मूल और पत्तं सहित अखंड ईस मेरे खाने के लिए यहाँ गाड़ी भर कर डाल दी हैं । अब आप मूलदेव को भी खाने के लिए ईख भेजने को कहलवाओ। फिर आपको मालूम हो जायगा कि दोनों में क्या अन्तर है ? दासी ने मूलदेव से भी वही बात कही । चतुर मूलदेव ने ५-६ ईख ले कर उसके मूल और अग्रभाग वाट कर साफ किये । पर्व की गांठें निकाल दीं और दो-दो उंगली जितने अमृतकुंडिका के बराबर टुकड़े कर के गंडरियां बना लीं। फिर उन्हें केसर, इलायची, कपूर आदि सुगन्धित द्रव्यों से सस्कारित व सुगन्धित करके शूलों में पिरो कर कटोरों में भर कर भिजवा दीं। देवदत्ता ने देखते ही अपनी माता से कहा -'मां ! देख लो सोने और पीतल का-सा मूलदेव और अचल में अन्तर !" कुट्टिनी ने सोचा- " मृगतृष्णा को पानी समझ कर जैसे प्यासा हिरन मोहवश उस ओर दौड़ता है, वैसे ही यह पुत्री भी वासना की प्यासी महामोहान्धकारवश इस घृतंराज की ओर दौड़ रही है । अतः जैसे सांप की बांबी में गर्मागमं खौलता हुआ पानी डालने से वह फौरन बाहर निकल भागता है, वैसे ही इस धूर्त के लिए भी कोई ऐसा उपाय करू जिससे यह नगर से निकल कर नगर से निकालने के लिए अचल से मिल कर एक षड़यंत्र रचा। भाग जाय ।" कुट्टिनी ने मूलदेव को दोनों ने गुप्तरूप से मंत्रणा करके यह -
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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