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________________ योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश चौपट हो जायगा, और फिर उसका परिवार भी दुःखी हो जायगा।" देवदत्ता ने कहा- आप बात न बनाएं । आप जैसे सिंहसम पराक्रमी पुरुष के लिए क्या देश और क्या परदेश ? गुणिजनों के लिए सर्वत्र स्वदेश हैं । जो मूर्ख हमें धन से अपना बनाना चाहते हैं, वे कम से कम मेरे हृदय से तो बाहर ही हैं। बत: गुणमंदिर ! मैं आपको साफ-साफ सुना देती हूं कि आपके सिवाय अब मेरे हृदय में दूसरा कोई प्रवेश नही कर सकता। इसलिए सौभाग्यशाली ! मेरा तन, मन और धन तीनों मापके चरणों में सनर्पित हैं, इन्हे स्वीकारो" इस तरह देवदत्ता के साग्रह अनुरोध पर मूलदेव ने उसकी बात मान ली और स्नेहपूर्वक दोनों आमोद-प्रमोद करने लगे। ठीक इसी समय द्वारपाल ने आ कर निवेदन किया-'स्वामिनी ! चलो अब राजसभा में नृत्य का समय हो गया।" देवदत्ता मूलदेव को भी प्रच्छन्नवेश में आने साथ राजसमा में ले गई । राजा के सामने देवदत्ता ने रम्भा के समान हावभाव से उज्ज्वलकारी नृत्य प्रारम्भ किया। मूलदेव ने इन्द्र के दुन्दुभिवादक की तरह बहुत ही सुन्दर एवं प्रभावपूर्ण ढग से दुन्दुभि बजाई। राजा देवदत्ता के शास्त्रीय हावभावयुक्त नृत्य से अत्यन्त प्रभावित हो कर बोला-"वर (प्रसाद) मांगो।" देवदत्ता ने अपना वर भंडार में अमानत रखने को कहा । तत्पश्चात् उसने मूलदेव के साथ संगीत और नृत्य किये। राजा ने प्रसन्न हो कर उमे सुन्दर आभूषण और बढ़िया पोशाक ईनाम में दिये । पाटलिपुत्रनरंश के द्वारपाल बिमलसिंह ने खुश हो कर राजा से कहा-"राजन् ! पाटलिपुत्र में बुद्धिशाली कलाकार मूलदव रहता है। हो न हो, यह कलाप्रकर्ष या तो उसका दिया हुआ है, या चुराया हुआ है। अन्य किसी में ऐसा कला-प्रकर्ष हो नहीं सकता । इसलिए मूलदेव के बाद इसे ही कलाविज्ञ का प्रमाणपत्र देना चाहिए। और नतंकियों में श्रेष्ठ को प्रमाणपत्र के रूप में पताका दी जानी चाहिए ।' राजा भी तदनुसार दने लगा। सपर देवदत्ता ने कहा-'यह मेरे गुरु हैं। मैं इनकी आज्ञा होने पर ही प्रमाणपत्रादि स्वीकार करूंगी।' राजा ने भी कहा-'महाभागे ! तुम इससे अनुमति लेने के बजाय, इस अनुमति दो।' धूतं मूलदेव ने कहा- 'महाराज जैसी आज्ञा कर रहे हैं, वैसे ही करो।' उप समय धूर्तराज ने इतन आकर्षक ढग से वीणा बजाई, मानो यह कोई दूसरा देवगन्धर्व हो । इसे देख कर विमलसिह ने कहा- "देव ! हो न हो, यह प्रच्छन्नवेष में मूलदेव ही है। ऐसी कला मूलदेव के सिवाय और किसी में नहीं हो सकती । निश्चय ही यह वही है, ऐसा मालूम होता है ।' राजा ने धूर्तराज को लक्ष्य करक कहा - 'यदि ऐसा है तो वह प्रगट हो जाए । मैं तो रत्न के समान मूलदेव के दर्शन करने को आतुर हूं।' मूलदव ने उसी समय अपने मह से जादूई गोली बाहर निकाली। इससे वह अपने असली रूप में बादलों से बाहर निकलते हुए चन्द्रमा के समान अतितेजस्वी मालम होता था। 'अब मालूम हुआ कि तुम पूर कलाविज्ञ हो ।' यों कहते हा विमलसिंह ने धृतसिंह का आलिंगन किया। तत्पश्चात् मूलदेव ने राजा को नमस्कार किया। गजा ने भी प्रसन्नता से उसका सत्कार किया। पुरुवर के साथ उर्वणी के समान मूलदेव पर अनुरक्त देवदना भी उमके साथ विषयसुखानुभव करती हुई जीवन व्यतीत कर रही थी । परन्तु मूलदेव ध तक्रीडा के बिना रह नहीं सकता था। भवितव्यता के कारण उत्तम गुण वाले में भी कोई न दोष लगा रहता है। देवदत्ता ने उससे सविनय निवेदन किया-'प्राणेश्वर ! आप जुमा खेलना छोड़ हैं।" किन्तु बहुतेरा कहने पर भी मूलदेव उस दुर्व्यसन को छोड़ न सका। सच है, स्वभाव का त्याग करना भतिकठिन होता है। उसी नगर में धनकुबेर के समान एवं रूप में साक्षात् कामदेव के समान अचल नाम का
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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