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________________ देवदत्तागणिका मूलदेव की कला से आकर्षित १७७ इस पर विश्वभूति कुपित हो कर अंटसंट बकने लगा। कहावत है कि चतुर या पण्डित द्वारा पूछे गए प्रश्नों को सुन कर अनभिज्ञ उपाध्याय क्रोध करके अपनी अज्ञानता छिपाते हैं।' मूलदेव ने मुस्कराते हुए कहा - " मित्र ! ऐसा प्रतीत होता है, नाटक के सम्बन्ध में कि तुम लगनाओं के नाट्याचार्य हो, औरों के नही ।" यह सुन कर वह निरुत्तर हो गया । देवदत्ता आँखें तरेरती हुई मुस्कानभरी दृष्टि से उपाध्यायजी को झेंप मिटाने के लिए बोली - "अभी तो आप जाने की जल्दी में होंगे, अतः बाद में शान्तिपूर्वक विचार कर इस विषय में इस विशेषज्ञ को उत्तर देना । विश्वभूति बोला- 'देवदत्ता ! अब तो मेरे नाटक करने का समय हो गया है, मुझे जाना है, अगर तुम चाहो तो तुम भी तैयार हो जाओ ।' यों कह कर विश्वभूति चला गया । तत्पश्चात् देवदत्ता ने अपनी दासी को आदेश दिया कि 'हम दोनों को स्नान करना है । अतः कलापूर्वक अंगमर्दन करने वाले किसी अंगमदंक को बुला लाओ।" यह सुन कर धूर्तराज ने कहा - 'सुनयने ! दूर जाने की जरूरत नहीं, मैं स्वयं अंगमर्दन कर सकता हूं।" "वह बोली - 'क्या इस कला को भी जानते हो ? उसने कहा - "मैं नहीं जानता, पर मैं इसके जानकार को जानता हूं, जिनकी सेवा में मैं रहा हूँ ।" देवदत्ता के आदेश से तुरंत शतपाक तेल आ गया। अत म यावी वामन तेल मालिश करने लगा । उसने वारांगना के अंग में स्थान के उपयुक्त कोमल, मध्यम और कठोर हाथों से ऐसा मर्दन किया कि उसके शरीर में स्फूर्ति और शक्ति के अतिरिक्त मुखानुभव भी हुआ । देवदत्ता उसकी कला से प्रभावित हो कर मन ही मन सोचने लगी- "ओहो ! इसने तो सभी कलाओं में निपुणता प्राप्त की है । इतनी कला हर एक व्यक्ति में नहीं हो सकती । हो न हो, यह कोई असाधारण व्यक्ति है ।' उसके कलानैपुण्य से आकर्षित देवदत्ता भावावेश में आ कर सहमा उसके चरणों में गिर पड़ी। कहने लगी"स्वामिन् ! हमें विश्वास है कि गुणों से आप कोई उत्तम पुरुष हैं । परन्तु आप हमसे भी कपट करके अपने असली रूप को छिपाते क्यों हैं ? कृपा करके आप अपने आपको खुल्लमखुल्ला प्रगट करें, हमें अपने असली रूप से वंचित न करें। देव भी भक्तजनों के आग्रह से प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं ।" यह सुन कर मूलदेव ने मुंह से जादुई गोली बाहर निकाली और नट के सरीखा अपना रूप बनाया । देवदत्ता विस्मयस्फारित नेत्रों से कामदेव के समान उसका अद्भुत रूप, लावण्य और मनोहर अंगोपांग देख कर बोली"धन्यवाद ! इस प्रकार के सुन्दर शरीर के रूप में दर्शन दे कर आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया । स्नान के योग्य एक तौलिया दे कर अनुरक्त, देवदत्ता उसके अंग पर अपने हाथ से प्रीतिपूर्वक तेल मालिश करने लगी । फिर उसके मस्तक पर सुगन्धित पदार्थ मला । तदनन्तर दोनों ने गर्म जल की धारा उड़ेल कर स्नान किया । स्नान करने के पश्चात् मूलदेव ने देवदत्ता द्वारा दिये हुए रेश्मीवस्त्र पहने और दोनों ने एक साथ ही सुपाच्य, सुगन्धित पदार्थमिश्रित, स्वादिष्ट भोजन किया। दोनों की मंत्री प्रगाढ़ होती गई । और वे प्रायः प्रतिदिन एकान्त में कला के रहस्यों की चर्चा करते थे । इस प्रकार काफी अर्सा बीत गया। एक दिन मूलदेव को प्रसन्नमुद्रा में जान कर देवदत्ता कहने लगी- 'नाथ ! आपने अपने लोकोत्तर गुणों से मेरा हृदय हरण कर लिया है। अतएव मेरी प्रार्थना है कि सुन्दर ! जैसे आपने मेरे हृदय में निवास कर लिया है, वैसे ही इस घर में पधार कर सदा के लिए निवास कीजिए।" इस पर मूलदेव बोला -- 'मेरे सरीखे परदेशी और निर्धन के साथ मोह-ममत्व करना उचित नहीं है । और वारांगना यदि किसी निर्धन के सिर्फ गुणों पर फिदा हो कर अनुराग करने लगेगी तो उसका धंधा ही 1 २३
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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