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________________ १७६ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश है ? इस प्रकार कह कर मूलदेव ने उस कुब्जा को निकट बुला कर विनोद की इच्छा से अपनी कला. कुशलता के बल पर धरती पर लिटाया और क्षणभर में उसका कुबड़ापन मिटा कर कमल के नाल की तरह उसे सीधी और सुन्दर बना दी । जब वह कुब्जा दासी बदली हुई आकृति में प्रसन्न होती हुई पहुंची तो देवदत्ता भी उसकी आकृति और चेष्टा देख कर ठगी-सी रह गई । उसे आश्चर्य हुआ कि देवों के दिये हुए वरदान को पाई हुई-सी मेरी दासी भी इतनी सुन्दर हो सकती है। अतः देवदत्ता ने उससे कहा - ऐसे चतुर कलाकार एवं उपकारी को तो अपनी उंगली काट कर अर्पण करके लाने में भी कोई हर्ज नहीं, तू जा किसी भी मूल्य पर उसे यहाँ ले आ।' दासी मूलदेव के पास पहुंची और मधुर एवं चतुरोचित वचनों से उस धूर्तराज को वेश्या के यहाँ निर्दिष्ट मार्ग से प्रवेश करा कर ले आई। राधा के यहाँ जसे माधव सुशोभित होते थे, वैसे ही देवदत्ता के यहाँ मूलदेव शोभायमान हो रहा था। कान्ति और लावण्य से सुशोभित उस वामन को देख कर गणिका ने उसे गुप्त देवता के ममान मान कर आदरपूर्वक आसन पर बिठाया। कुशल प्रश्न के पूछने के बाद स्वस्थ होने पर दोनों के हृदय की एकतास्वरूप चातुर्यपूर्ण वार्तालाप के साथ मधुर गोष्ठी होने लगी। उसी समय वीणा बजाने में निपुण एक बुद्धिशाली वीणावादक आया । देवदत्ता ने उससे अनिकौतुक-युक्त बीणा बजवाई। वीणावादक ने स्पष्ट ग्राम और श्रतिस्वर से इतनी सुन्दर ढंग से वीणा बजाई कि देवदत्ता भी झूमने और उसकी प्रशंसा करने लगी। उस समय मूलदेव ने जरा-सा विनोद करते हुए कहा-"उज्जयिनी के लोग सचमुच बड़े निपुण और गुण-अवगुण के पारखी हैं ।'' देवदत्ता ने शंकामरी दृष्टि से कहा-"इसमें क्या शक हैं ? चतुरों की चातुर्ययुक्त प्रशंसा में उपहास की शंका पैदा होती है।" उसने कहा-"आप सरीखे वीणावादक में क्या कमी है ?, यह कहना तो आश्चर्य की बात होगी। लेकिन इतना मैं कह सकता हूं कि यह वीणा गर्भ वाली है, इसमें बांस शल्ययुक्त है।" 'आपने कैसे जाना ?' यह उपस्थित लोगों के पूछने पर मूलदेव ने उससे वीणा लेकर उसके बांस में से पत्थर का टुकड़ा खींच कर सबको बताया। बाद मे उस वीणा को दुरुस्त करके इस प्रकार मधुर और सुरीले स्वर में बजाने लगा, मानो श्रोताओ के कानों में अमृत घोल दिया हो । इस पर देवदत्ता ने कहा - "कलानिधे ! आप असाधारण पुरुष मालूम होते हैं. नररूप में आप साक्षात् सरस्वतीमय हैं।' वह वीणावादक मी मूलदेव के चरणों में पड़ कर कहने लगा-"धन्य हो, स्वामिन् ! मैं आपसे वीणा बजाना सीखगा। आप मुझ पर कृपा करें।' मूलदेव ने कहा --"मैं यथार्थरूप से तो वीणा बजाना नहीं जानता, परन्तु जो अच्छे ढंग से वीणा बजाना जानते है, उन्हें मैं जानता हूं।" देवदत्ता ने पूछा-"उनका नाम क्या है ? वे कहां रहते हैं ?' मूलदेव ने कहा-"पूर्व दिशा में पाटलीपुत्र नामक नगर में महागुणी कलाचार्य विक्रमसेन रहते हैं, मैं उन्हीं का सेवक मूलदेव हूं, उनकी सेवा में सदा रहता हूं। इसी बीच वहाँ विश्वभूति नाम का नाट्याचार्य भी आ गया। देवदत्ता ने उसका परिचय देते हुए कहा-'यह साक्षात् भरत ही है।" मूलदेव ने कहा--"ऐसा ही होगा। तुम जैसी ने इसे कलाओं का अध्ययन कराया होगा।" उसके बाद विश्वभूति से भरत के नाटकों के विषय में बातें चलीं। बातचीत के सिलसिले में मूलदेव को वह घमंडी मालूम पड़ा । केवल ऊपर ऊपर से जानने वाले ऐसे ही होते हैं ।" मूलदेव ने मन ही मन सोचा -'यह अपने आपको विद्वान समझता है । लेकिन तांबे पर सोने का मुलम्मा चढ़ाने की तरह, इसे जरा अंदर की झांकी करा दूं।" अतः उसने सफाई से वाक्चातुरी करते हुए उसके भरत-सम्बन्धी नाटक-व्याख्यान में पूर्वोपर दोष बताये।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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