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________________ १७२ योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश सत्यवादियों का इस लोक में भी प्रभाव बताते हैं अलीकं ये न भाषन्ते सत्यवतम.धिनाः । नापराद्ध मलं भूत-तारगात्यः ॥६४। अर्थ जो सत्यव्रत के महाधनी मनुष्य असत्य नहीं बोलते, उन्हें भूत, प्रेत, सर्प आदि कोई भी दुःख देने में समर्थ नहीं होते। व्याख्या भूत, प्रेत, व्यन्तर आदि अपने सम्बन्धियों को हैरान, परेशान करते हैं। उपलक्षण से सर्प, एवं सिंहादि जानना । परन्तु सत्यव्रतरूपी महाधन वाले असत्य नहीं बोलते, उन्हें भूतादि हैरान करने में असमर्थ हैं । इस सम्बन्ध में दूसरे प्रलोक (अर्थसहित) कहते हैं जलाशय की पाल के समान अहिंसारूपी जल के रक्षक के समान सत्य दूसरा व्रत है । सत्य व्रत का भंग होने से किनारे टूट जाय तो अहिंसा रूपी जलाशय अरक्षित हो कर नष्ट हो जायेगा । अतः सज्जनपुरुषों को सभी जीवों के लिये उपकारी मत्य ही बोलना चाहिए या फिर सर्वार्थमाधक मौन का आलम्बन ले कर रहना चाहिए । किसी के पूछने पर बैर पैदा करने का कारणभूत, किसी की गुप्त बात प्रगट करने वाला, उत्कट शंका पैदा करने वाला या शंकास्पद, हिंसाकारी या परपैशुन्यकारी (चुगली खाने वाला) वचन नहीं बोलना चाहिए। परन्तु धर्म का नाश होता हो, क्रिया का लोप होता हो, या सत्सिद्धान्त के सच्चे अर्थ का लोप होता हो तो शक्तिशाली पुरुष को उसके निराकरण के लिये बिना पूछे ही बोलना चाहिए । चार्वाक, नास्तिक. कोलिक, विप्र, बौद्ध, पांचरात्र आदि ने जगत् को असत्य से आक्रान्त करके विडम्बित किया है । सचमुच, उनके मुंह से जो उदगार निकलते हैं ; वे नगर के नाले के प्रवाह के ममान पंकमिश्रित दुर्गन्धितजल सदृश हैं । दावानल से झुलसा हुआ वृक्ष तो फिर से हरा-भरा हो सकता है, मगर दुर्वचनरूपी आग से जला हुआ व्यक्ति इस लोक में यथार्थ धर्म-मार्ग को पा कर, पल्लवित नहीं होता । चन्दन, चन्द्रिका, चन्द्रकान्त मणि, मोती की माला उतना आनन्द नही देती, जितना आनंद मनुष्यों की सच्ची वाणी देती है। शिखाधारी, मुडित मस्तक, जटाधारी, निर्वस्त्र या सवस्त्र तपस्वी भी यदि असत्य बोलता है, तो वह अत्यन्त ही निन्दनीय बन जाता है। तराजू के एक पलड़े में अमत्य कथन से उत्पन्न पाप को रखा जाय और दूसरे पलड़े में बाकी के सारे पाप रखे जांय और तोला जाय तो असत्य का पलड़ा ही भारी होगा। परदारागमन, चोरी आदि पापकर्म करने वालों को छुड़ाने के प्रत्युपाय तो मिल जायेंगे; लेकिन असत्यवादियों को छुड़ाने के लिये प्रतिकारक उपाय कोई नहीं है। यह सब सत्यवाणी का ही फल है कि देव भी उसका पक्ष लेते हैं ; राजा भी उसकी आज्ञा मानते हैं । अग्नि आदि उपद्रव भी शान्त हो जाता है। इस तरह गृहस्थ श्रमणोपासक के दूसरे व्रत का वर्णन पूर्ण हुआ। अब तीसरा अस्तेयव्रत कहते हैं। अदत्तादान (चोरी) का दुष्फल बताए बिना मनुष्य चोरी से नहीं रुकता । इसलिये सर्व प्रथम इसका दुष्परिणाम बता कर चोरी का निषेध करते हैं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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