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________________ १७३ अदत्तादाम और उससे होने वाले दुष्परिणामों का वर्णन दौर्भाग्यं प्रेष्यतां दास्यमंगच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तातफलं ज्ञात्वा स्थूलस्तेयं विवर्जयेत् ॥६५॥ अर्थ दुर्भाग्यता (भाग्य फूट जाना), किंकरता (दूसरे के घर में नौकर बन कर कार्य करना), दासता (गुलामी), शारीरिक पराधीनना, हाथ, पैर आदि अंगोपांगों का छेदन, निर्धनता आदि पूर्वजन्म में बिना दो हुई वस्तु को ग्रहण करने (अवतादान = चोरी)का फल है। इस प्रकार शास्त्र से अथवा गुरुमहागज के श्री मुख से जान कर सुखार्थी श्रावक लोक व्यवहार में जिमे चोरी कहा जाता हो, उस स्थूल अदत्तादान का त्याग करे। आगे विस्तार से इसका स्वरूप बता रहे हैं : पतितं विस्मृतं नष्टं स्थितं स्थापितमा तम् । अदत्तं नाददीत स्वं परकीयं क्वचित्सुधीः ॥६६॥ अर्थ रास्ते चलते हुए या सवारी से जाते हुए गिरी हुई, उसके मालिक के भूल जाने से पड़ी हुई, खोई हुई, मालिक को उसका पता भी न हो, इस प्रकार रखी हुई, अथवा अमानत, धरोहर के सुरक्षित रखने के लिए रखी गई, जमीन में गाड़ी हुई, दूसरे की वस्तु को उसके मालिक की इच्छा या अनुमति के बिना ग्रहण करना चोरी है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह किसी भी प्रकार के संकटापन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में हो, फिर भी चोरी न करे। चोरी का दूषण कितना निन्दनीय है. यह बताते हैं--- अयं लोकः परलोको धर्मो धैर्य धृतिर्मतिः । मुष्णता परकीयं रवं, मुषितं सर्वमप्यदः ॥७॥ अर्थ दूसरे के धन की चोरी करने वाला उसके धन को ही हरण नहीं करता, अपितु इस लोक का जन्म, जन्मान्तर, धर्महीनता, धृति, मति कार्याकार्य के विवेकरूप भावधन का भी हरण कर लेता है। हिंसा से चोरी में अधिक दोष है, इसे बताते हैं एकस्यक क्षणं दुःखं मार्यमाणस्य जायते । सपुत्रपौत्रस्य निर्यावज्जावं इते धमे ॥६॥ अर्थ जिस जीव की हिंसा की जाती है उसे चिरकाल तक दुःख नहीं होता, अपितु क्षणभर के लिये होता है। मगर किसी का धन-हरण किया जाता है, तो उसके पुत्र, पौत्र और
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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