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________________ असत्यवचन से दोष और सत्यवचन की महिमा अल्पादपि मृषावादाद रौरवादिषु सम्भवः । अन्यथा वदतां जैनों वाचं त्वहह का गतिः ॥१२॥ अर्थ जरा-सा भी झूठ बोलने से जब नरकादि गतियों में उत्पन्न होना पड़ता है; अरे रे! तो फिर श्रीजिनेश्वरदेव की वाणी के विपरीत बोलने वालों को क्या गति होगी? व्याख्या इस जगत् में जरा-सा लाभकारक थोड़ा-सा भी असत्य बोलने से मनुष्य रौरव, महारौरव आदि नरक में उत्पन्न होता है । रौरव शब्द नरक के अर्थ में लोक-प्रचलित है। नहीं तो, कहा जाता'समस्त नरकों में' । श्रीजिनेश्वरदेव के कथन से विपरीत अर्थ करने वाले और असत्यवादी कुतीथियों और स्वमत-निह्नवों आदि की क्या गनि होगी? वे तो नरक से भी अधिक अधम-गति प्राप्त करेंगे ! उनको प्राप्त होने वाली इस कुगति को कौन रोक सकता है ? इसीलिये कहा-'ओफ ! सचमुच वे शोक और खेद करने योग्य हैं।' जिनोक्तमार्ग से जरा-सा भी विपरीत बोलना या पृथक प्ररूपणा करना, अन्य सब पापों से बढ़कर भयंकर पाप है। मरीचि के भव में उपाजित ऋषभदेव-प्ररूपित मार्ग से जरासी विपरीत प्ररूपणा करने के पाप के कारण ही भगवान महावीर के भव में देवों द्वारा प्रशंसित और तीन लोकों में अद्वितीय मल्ल के समान तीर्थंकर परमात्मा होने पर भी प्रभु ने अनेकबार ग्वाले आदि द्वारा प्रदत्त असोम यातनाएं प्राप्त की थीं। और स्त्री, गाय, ब्राह्मण और गर्भस्थ जीव की हत्या करने वाले दृढ़प्रहारी सरीखे कितने ही महापापियों ने उसी जन्म में मुक्ति प्राप्त की है ; यह बात प्रसिद्ध है। अमत्यवाद के दुष्परिणाम बता कर अब सत्यवाद की प्रशंसा करते हैं ज्ञानचारित्रयोर्मूलं सत्यमेव वदन्ति ये। धात्री पवित्रीक्रियते तेषां चरणरेणुभिः ॥६३॥ अर्थ जो मनुष्य ज्ञान और चरित्र के मूल कारणरूप सत्य ही बोलते हैं, उन मनुष्यों के चरणों को रज से यह पृथ्वी पवित्र होती है। व्याख्या ज्ञान और चारित्र (क्रिया) का मूलकारण सत्य है। भगवद्वचन के भाष्यकारों ने उनके ही वचनों का अनुसरण करते हुए कहा है-'माणकिरियाहिं मोक्खो' ज्ञानशब्द में दर्शन का भी समावेश हो जाता है। क्योंकि दर्शन के बिना ज्ञान अज्ञान माना जाता है। मिथ्यादृष्टि जीव सद्-असद्-पदार्थों को विपरीत रूप में जानता है। उसका ज्ञान संसार-परिभ्रमण कराने वाला मनमाना अर्थ करने वाला तथा निरपेक्ष वचन का वाचक होने से सम्यगज्ञान के फल का दाता नहीं होता। कहा भी है-'मिथ्यादृष्टि के ज्ञान में सत्य और मूठ में अन्तर नहीं होने से वह संसार-परिभ्रमण का कारणरूप है। अपनी बौद्धिक कल्पना के अनुसार मनगढंत अर्थ करने से शास्त्राधीनता अथवा शास्त्र-सापेक्षता न होने से उस (मिथ्या) ज्ञान के फलस्वरूप विरति नहीं होती। इसी कारण मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान माना गया है ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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