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________________ ब्रह्मदत्त का दो अनुरक्ताबों के साथ विवाह और वरधनु का मिलन ही हम दोनों की गति हैं । कुमार ने दोनों नारियों को अनुरक्त जान कर उनके साथ गान्धर्व-विवाह किया । सरिताओं को सागर का संगम प्रिय होता है, वैसे ही स्त्रियों को अपने पतियों का संगम प्रिय होता है । गंगा और पार्वती के साथ जैसे महादेव क्रीड़ा करते थे, वैसे उन दोनों कामिनियों के साथ क्रीड़ा करते हुए ब्रह्मदत्त ने वह रात वहीं पर बिताई । प्रातः कुमार ने प्रस्थान करते समय उन दोनों को सस्नेह आज्ञा दी कि जब तक मुझे राज्य न मिले, तब तक तुम दोनों पुष्पवती के पास ही रहना । दोनों ने कुमार की आज्ञा शिरोधार्य को। कुमार के वहां से प्रस्थान करते ही वह मन्दिर और घर आदि सब गन्धर्वनगर के समान अदृश्य हो गये। वहां से लौट कर ब्रह्मदत्त रत्नवती की तलाश करने के लिए उस तापस-आश्रम में पहुंचा। परन्तु वहां उसे न पा कर वहां खड़े एक शुभाकृतिमान पुरुप से पूछा- "महाभाग ! दिव्य वस्त्र पहनी हुई, रत्नाभषणों मे सुशोभित किसी स्त्री को आपने आज या कल देखी है ?" उसने उत्तर दिया-'हां, महानुभाव । कल मैंने 'हे नाथ, हे नाथ !' इस प्रकार रुदन और विलाप करती हुई एक स्त्री देखी थी। परन्तु उमका चाचा उसे पहिचान कर अपने साथ ले गया है।" रत्नवती के चाचा को ब्रह्मदत का पता लगा तो उसे अपने यहां बुला लिया। महान ऋद्धि वाले भाग्यशालियों को सभी वस्तु नई मालुम होती है। उसके माथ विषयसुखानुभव करते हुए काफी समय व्यतीत हो गया। एक दिन कमार ने वरधन का मरणोत्तर कार्य प्रारम्भ किया। दूसरे दिन कमार ब्राह्मणों को भोजन दे रहा था कि वरधनु की-सी आकृति का एक ब्राह्मण-वेषधारी व्यक्ति वहाँ आ कर कहने लगा-'यदि मुझे भोजन दोगे तो साक्षात् वग्नु को दोगे।' कानों को अमृतसम ऐसे प्रियवचन ब्रह्मपुत्र ने सुने और उसे सिर से पैर तक गौर से देख कर इस तरह छाती से लगाया, मानो अपनी आत्मा को उसकी आत्मा के साथ एकरूप बना लिया हो। फिर हाथ से उसे स्नान करा कर कुमार घर में ले गया। स्वस्थ होने पर कुमार के द्वारा पूछने पर उसने अपना सारा वृत्तान्त इस प्रकार सुनाया ___ "आपके सो जाने के बाद दीर्घराजा के सैनिक-से लगते चोरों ने मुझे घेर लिया। वहीं वृक्ष के बीच में छिपे एक चोर ने इतने जोर से वाण मारा कि मैं आहत हो कर वहीं जमीन पर गिर पड़ा। होश में आने पर धीरे से सरक कर लताओं के बीच में मैंने अपने आपको छिपा लिया। चोरों के चले जाने के बाद मैं वृक्ष के खोखले में इस प्रकार छिप गया ; जैसे पानी में अतिपक्षी छिप जाता है। जब चारों ओर सन्नाटा छा गया, तब इधर-उधर देखते हुए बड़ी मुश्किल से मैं गांव में पहुंचा। गांव के मुखिया से आरके समाचार जान कर खोजते-खोजते मैं यहां तक आया हूँ। मोर को जैसे मेघ देखने पर हर्ष होता है वैसे ही मुझे आपको देख कर अत्यन्त हर्ष हुआ है। ब्रह्मदत्त ने अत्यन्त प्रसन्नता प्रगट करते हुए उससे कहा- "अब हम कब तक पुरुषार्थहीन हो कर कायर बने बैठे रहेंगे ?' ___ उसी दौरान कामदेव को आधिपत्य दिलाने वाला, मद्य के समान जवानों को मदोन्मत्त बनाने वाला वसंतोत्सव आ गया। तब यमराज का सहोदर-सा राजा का एक मतवाला हाथी खम्भा तोड़ कर शृंखलाबन्धनमुक्त हो कर सब लोगों को त्रास देता हुआ बाहर निकला। नितम्बभार से लड़खड़ाती हुई एक युवती राजमार्ग पर जा रही थी, कि उस हाथी ने कमलिनी की तरह उसे सूंड में पकड़ कर उठाई। लाचार बनी हुई, आंसू बहाती वह कन्या दीनतापूर्वक करुणक्रन्दन करने लगी-'अरे मातंग, ओ मातंग ! (अर्थात् तेरा मातग-(चांडाल) नाम सार्थक है) एक अबला को पकड़ते हुए तुझे शर्म नहीं आती ?' यह सुनते ही हाथी के चंगुल से छुड़ाने के लिए कुमार उसके सामने आया। कुमार एकदम उछल कर सीढ़ी पर पैर रखने के समान उसके दांत पर पैर रख कर आसानी ने हाथी की पीठ पर चढ़ गया। और
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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