SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश वहां आसन जमा कर बैठ गया। जैसे योगी योगबल से इन्द्रियों और मन को वश में कर लेता है, वैसे ही कुमार ने वाणी और पैर के दबाव के अंकुश से हाथी को वश में कर लिया। वहां खड़े हुए दर्शक लोग सहसा बोल उठे-'शाबाश ! शाबाश ! वाह ! वाह ! बहुत अच्छा किया। इस प्रकार सब लोग कुमार की जय-जयकार करने लगे। कुमार ने भी हाथी को खंभे के पास ले जा कर हथिनी के समान बांध दिया। जब राजा के कानों में यह बात पहंची तो वह तुरंत घटनास्थल पर आया और कुमार को विस्मित नेत्रों से देख कर कहने लगा . "इसकी आकृति और पराक्रम से कौन आश्चर्यचकित नहीं होता? यह गुप्तवेश में पराक्रमी पुरुष कौन है ? कहां से आया? अथवा यह कोई सूर्य या इन्द्र है ?" यह सुन कर रत्नवती ने गजा को सारा वृत्तान्त सुनाया। कुमार के गुणों से आकृष्ट होकर भाग्यशाली राजा ने उत्सवपूर्वक ब्रह्मदत्त को उसी तरह अपनी कन्याएं दी ; जिस तरह दक्ष राजा ने चन्द्र को दी थीं। राजकन्याओं के साथ विवाह के बाद कुमार वहीं सुखपूर्वक रहने लगा । एक दिन वस्त्र का एक सिरा घूमाती हुई एक बुढ़िया ने आ कर कुमार से कहा- "इस नगर में पृथ्वी पर दूसरे धनकुबेर के समान धनाढ्य वैश्रमण नामक सेठ रहता है। समुद्रोत्पन्न लक्ष्मी की तरह उसके श्रीमती नाम की एक पुत्री है। राहु के पंजे से चन्द्रकला की तरह आपने जिस दिन उमे हाथी के पंजे से छुड़ाई है, उसी दिन से उसने आप को मन से पतिरूप में स्वीकार कर लिया है। तभी से वह आपकी याद में बेचन और दुबली हो रही है। आपको जैसे उसने हृदय में ग्रहण किया है, उसी तरह आप उसे हाथ से ग्रहण करें।" बुढ़िया के बहुत अनुरोध करने पर कुमार ने अपनी स्वीकृति दे दी। तत्पश्चात् खूब धूमधाम से गाजे-बाजे व विविध मंगलों के साथ कुमार ने श्रीमती के साथ शादी की । साथ ही उसी समय सुबुद्धि मन्त्री की नन्दा नाम को कन्या से वरघनु ने शादी की। इस तरह अपने पराक्रम से देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करते हुए और परोपकार में उद्यम करते हुए वे दोनों आगे से आगे बढ़ते जा रहे थे। ब्रह्मदत्त को वाराणसी की ओर आते हुए सुन कर वहां के राजा कटक ब्रह्मा के समान उसकी महिमा जान कर अगवानी के लिये उसके सामने गया और उत्सवसहित उसे अपने यहाँ ले आया। ब्रह्मदत्त के गुणों से आकर्षित हो कर राजा ने उसे कटकवती नाम की अपनी पुत्री दी और दहेज में साक्षात् जयलक्ष्मीसदृश चतुरंगिणी सेना दी। इसी तरह चम्पानगरी के करेणुदत्त, धनुमंत्री और भागदत्त आदि राजा उसका आगमन सुन कर स्वागतार्य सम्मुख आये । भरतचक्रवर्ती ने जैसे सुषेण को सेनापति बनाया था, वैसे ही ब्रह्मदत्त ने वरधनु को सेनाधिपति बना कर दीर्घराजा को परलोक का अतिथि बनाने के लिए उसके साथ युद्ध के लिये कूच किया। इसी दौरान दीर्घराजा के एक दूत ने कटकराजा के पास आ कर कहा-'दीर्घराजा के साथ बाल्य-काल से बंधी हुई मित्रता छोड़ना आपके लिये उचित नहीं है। इस पर कटक राजा ने कहा -ब्रह्मराजा सहित हम पांचों सगे भाइयों की तरह मित्र ये । ब्रह्मराजा के मरते समय पुत्र और राज्य की रक्षा करने की जिम्मेवारी दीर्घराजा को सौंपी गई थी। लेकिन उन्होंने न तो ब्रह्मराजा के पुत्र के भविष्य का दीर्घदृष्टि से विचार किया और न उसके राज्य का ही । प्रत्युत भ्रष्ट बन कर इतने अधिक पापों का आचरण किया है, जितने एक चांडाल भी नहीं करता। अतः तू जा और दीर्घराजा से कहना कि ब्रह्मदत्त आ रहा है, या तो उसके साथ युद्ध कर या अपना काला मुंहले कर यहां से भाग जा। यों कह कर दूत को वापिस भेज दिया। तदनन्तर ब्रह्मदत्त अबाध गति से आगे बढ़ता हमा काम्पिल्यपूर आया। वहां पहुंचते ही जैसे मेघ सूर्य-सहित आकाश को घेर लेता है, वैसे ही उसने दीर्घराजा सहित सारे नगर को चारों ओर से घेर लिया। बांबी पर इंडे की चोट लगाने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy