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________________ १३८ योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश के चौथे पहर में यहाँ अचानक चोर चढ़ आये। परन्तु कुमार के ललकारने पर वे सब उलटे परों भाग मये । उसके बाद गांव के नेता के पथप्रदर्शन में चलते हुए कुमार और रत्नवती दोनों राजगह पहुंचे। वहां नगर के बाहर एक तापस के आश्रम में रत्नवती को ठहरा दिया। कुमार के वहाँ से चल कर नगर में प्रविष्ट होते ही उसने महल के झरोखे में खड़ी हुई दो नवयौवना कामिनियां देखीं ; मानो वे साक्षात् रति और प्रीति हों। उन दोनों ने कुमार से कहा-'कुमार ! प्रीतिपरायणजनों के प्रेम को छोड़ कर चले जाना क्या आपके लिये उचित है ?' कुमार ने कहा-ऐसे प्रेमपरायण कौन हैं ? और कब मैंने उनका त्याग किया है ? यह तो बताओ कि तुम कौन हो? यों पूछते ही उन्होंने स्वागत करते हुए कहा"नाथ ! पहले आप यहाँ पधारिए और विश्राम करिये। आप प्रसन्न तो हैं न?' यों मधुरवचनों से सत्कार करती हई वे दोनों ब्रह्मदत्त को घर में ले गई। उसे स्नान, भोजन आदि कराने के पश्चात् अपनी यथार्थ कथा इस प्रकार कहने लगी 'विद्याधरों के आवास से युक्त स्वर्णशिलामयी पृथ्वी के निलम-समान वैताढ्य-गवंत की दक्षिण श्रेणी में शिवमन्दिर नामक नगर में अलका पुरी में गुह्यक की तरह ज्वलनशिख नाम का राजा राज्य करता था। उस विद्याधर राजा के तेजस्वी मुखकान्ति वाली, विद्य प्रभा के समान विद्युत्शिखा नाम की पत्नी थी। उनसे नाट्योन्मत्त नामक पुत्र के बाद खंडा और विशाखा नाम की हम दोनों प्राणाधिका पुत्रियां हुई । एक बार पिताजी अपने मित्र अग्निशिख और हम सबको साथ ले कर तीर्थयात्रा के लिये चले । 'स्नेहीजन को धर्मकार्य में लगाना चाहिये । हम वहाँ से अप्टापद-पर्वत पर पहुंचे । वहां मणिरत्न से निर्मित, प्रमाणोपेत वर्णयुक्त श्री तीर्थकर-प्रतिमाओं के दर्शन किये तथा विधिवत् अभिषेक, विलपन एवं पूजा करके, उनकी प्रदक्षिणा दे कर एकाग्र चित्त से हमने भक्तियुक्त चैत्य-वदन किया । वहा से बाहर निकलते ही रक्तवर्णीय वृक्ष के नीचे दो चारणमुनियों को देखा ; मानो वे मूर्तिमान नप और शम हों। उन्हें वन्दन करके हमने श्रद्धापूर्वक अपना अज्ञानान्धकार दूर करने वाली साक्षात् चन्द्र-ज्योत्सना के समान उनकी धर्मदेशना सुनी। उसके बाद अग्निशिख ने मुनिवर से पूछा --- ''इन दोनों कन्याओं का पति कौन होगा ?" उन्होंने कहा-'इन दोनों के भाई को जो मारेगा, वही इनका पति होगा ' इस बात को सुनते ही हिमपात से जैसे चन्द्रमा फीका पड़ जाता है, वैसे ही पिताजी और हम दोनों का चेहरा फीका पड़ गया । फिर हमने वैराग्यमित वचनों से उन्हें कहा-पिताजी ! आज ही तो आपने मुनिवर से ससार की असारता का उपदेश सुना है, और आज ही आप विषादरूपी निपाद से इतने पराभूत हो रहे हैं ? इस प्रकार के विषयोत्पन्न मुख में डूबने से क्या लाभ ?' तब से हम मन अपने भाई की सुरक्षा का ध्यान रखते थे। एक बार हमारे भाई ने भ्रमण करते हुए आपके मामा पुष्प-चूल की पुत्री पुष्पवती को देखा । उसके अद्भुत रूप-लावण्य को देख कर वह मोहित हो गया । फिर उस दुर्बुद्धि ने उस कन्या का जबर्दस्ती अपहरण किया । 'बुद्धि सबा कर्मानुसारिणी होती है।' कन्या की दृष्टि सहन नहीं होने से वह स्वयं विद्या साधन करने गया । उसके बाद का सारा हाल आप जानते ही हैं। उस समय पुणवती ने हमारे भाई के मरण-सम्बन्धी दुःख को दूर करने के लिए धर्म की बातें कहीं और यह भी बताया कि तुम्हारा ईष्ट भर्ता ब्रह्मदत्त यही पर आया हुआ है । मुनि की वाणी कभी मिथ्या नहीं होती। हमने उस बात को स्वीकार किया । परन्तु उतावल में पुष्पवती ने लाल के बदले सफेद मंडी हिला दी, जिससे आप हमें छोड़ कर चले गये । हमारे भाग्य की प्रतिकूलता के कारण आप नहीं पधारे। हमने आपकी वहां बहुत खोज की। पर आप कहीं दिखाई न दिये । आखिर हार-थक कर हम वापिस यहाँ आई । हमारे अहोभाग्य से आप यहां पधारे हैं । पुष्पवती के कथन के अनुसार हम आपको पहले ही स्वीकृत कर चुकी हैं । अतः अब आप
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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