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________________ ब्रह्मदत्त का चोरों के साथ युद्ध और मंत्रीपुत्र का वियोग ब्रह्मदत्त कौशाम्बी को पार कर ज्यों ही यमराज की क्रीड़ाभूमि-सी एक भयंकर अटवी में पाया, त्यों ही उसने अपने सामने भयंकर सुकंटक और कंटक नामक दो भयंकर चोर सेनापतियों को देखा । बड़े सूअर को जैसे कुत्तं रोक लेते हैं, उसी प्रकार उन्होंने ब्रह्मदत्त को रोक लिया। और कालरात्रि के पुत्र सरीखे उन दोनों भाइयों ने साहसपूर्वक उत्तेजित हो कर सेना के सहित ब्रह्मदत्त पर एकदम बाणवर्षा कर दी। वाणों से सारा आकाशमंडल छा गया । कुमार ने भी धनुष-बाण धारण कर सिंह-गर्जना करते हुए बाणों की अखण्डधारा से चोरसेना को उसी तरह स्तम्भित कर दी, जिस तरह मेघधारा अग्नि को स्तम्भित कर देती है। कुमार द्वारा की गई उस बाणवृष्टि से उभय चोरसेनापति और उनकी सेना तितर-बितर हो कर भाग गई । सामने प्रहार करने वाला सिंह हो तो वहां हिरण कैसे टिक सकता है ? मन्त्री-पुत्र ने कुमार से कहा - 'स्वामिन् ! युद्ध करके आप बहुत थक गये होंगे। अतः घड़ीभर इस रथ पर ही सो जाइये । पर्वत की तलहटी में जैसे जवान हथिनी के साथ हाथी सो जाता है, वैसे ही ब्रह्मदत्त भी रथ में रत्नवती के साथ सो गया । कुछ समय बाद जब राजकुमार जागा तो रथ के सारथी के रूप में मंत्रीपुत्र को उसने नहीं देखा। अत: 'पानी लेने गया होगा' ; ऐसा विचार कर बहुत देर तक आवाज दी। परन्तु सामने से कोई उत्तर नहीं मिला और रथ के आगे का भाग खून से सना देखा तो कुमार सहसा चिल्ला उठा-"हाय मैं मारा गया !" यों विलाप करते-करते वह मूच्छित हो कर रथ में गिर पड़ा । कुछ देर बाद होश आने पर वह खड़ा हुआ। फिर कुछ स्मरण कर साधारण मनुष्यों को तरह सिसकियां भर कर रोने लगा । 'मित्र, वरधनु ! हाय ! तुम कहां चले गये, मुझे छोड़ कर !" इस प्रकार वह विलाप करने लगा। रत्नवती ने ढाढस बंधाते हुए समझाया-"मुझे नहीं लगता कि आपके मित्र की मृत्यु हुई है । अतः नाथ ! उसके लिए ऐसे अमांगलिक शब्द बोलना योग्य नहीं है । आपके कार्य के निमित्त से वह यहीं कहीं पर गया होगा । यह निःसंदेह बात है कि स्वामी के कार्य के लिये कभी-कभी बिना पूछे भी सेवक जाते हैं । मेरा मन कहता है, वह आपकी भक्ति के प्रभाव से सुरक्षित ही है और अवश्य ही वापिस आयेगा । स्वामीभक्ति का प्रभाव ही ऐसा है कि वह सेवकों के लिए कवच के समान कार्य करती है। स्थान पर पहुंच कर हम सेवकों के द्वारा उसकी खोज करायेंगे । अब यमराज सरीखे इस भयंकर वन में जरा भी रुकना ठीक नहीं है। रत्नवती के कथन से आश्वस्त हो कर कुमार ने घोड़ों को आगे चलाया और मगधराज्य के सीमावर्ती एक गांव में पहुंचे। "घोड़े और वायु के लिये दूर ही क्या है ?'' अपने घर में बैठे हुए गांव के मुखिया ने उन्हें जाते देखा तो स्वागतपूर्वक अपने घर ले आया। 'आकृति के देखने मात्र से ही अज्ञात महापुरुषों की पूजा होती है। जब कुमार कुछ स्वस्थ हुआ तो गांव के मुखिया ने उससे पूछा-आपके चेहरे से मालूम होता है, आप शोकातुर हैं । अगर कोई आपत्ति न हो तो मुझे अपनी चिन्ता का कारण बताइये ।" कुमार ने कहा-"चोरों के साथ युद्ध करते हुए मेरा मित्र कहीं गायब हो गया है । उसका पता नहीं चला रहा है। इसलिए हम चिन्तित हैं।" इस पर मखिया ने कहा--"जैसे हनुमानजी ने सीता का पता लगाया था, वैसे हम भी उसका पता लगा कर लायेंगे।" यह कह कर गांव की जनता के साथ मुखिया ने सारी बटवी छान डाली; मगर उसका कहीं पता नहीं चला। गांव के नेता ने कहा-'इस महावन में तो प्रहार से घायल हुआ कोई नजर नहीं आया ; हां ! यह एक बाण जरूर वहां मिला है । मालुम होता है, वरधनु अवश्य मर गया है।' यह सुनते ही ब्रह्मदत्त और अधिक शोकान्धकार में डूब गया। थोड़ी ही देर में उस शोकान्धकार को प्रत्यक्ष बनाने के हेतु रात्रि का बागमन हुमा । रात
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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