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________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश बंधा हुआ अपने नाम का लेख देखा । इतने में मानो साक्षात् वाचिक लेख हो, इस रूप में वत्सा नाम की एक तापसी आई । उसने दोनों के मस्तक पर बक्षत गल कर आशीर्वाद दिया। फिर वरधनु को एक ओर ले जा कर. उसके कान में कुछ कह कर वह चली गई। मंत्रीपुत्र ने यह बात ब्रह्मदत्त से कही कि वह तापसी हार के साथ बंधे हए लेख का प्रतिलेख मांगती थी। यह श्रीब्रह्मदत्त-नामांकित लेख उसने है। मैंने उससे पूछा-'यह ब्रह्मदत्त कौन है? तब उसने कहा-"इस भूमण्डल पर मानो रति ही कमारिका के रूप में रूप बदल कर आई हो, ऐसी इस नगर की ष्ठिपुत्री रत्नवती है। उसने अपने भाई सागरदत्त और बुद्धिल के मुगों की लड़ाई के दिन ब्रह्मदत्त को देखा था। उसी समय से वह कामज्वर से पीडित है। उसे किसी भी प्रकार से बैन नहीं मिल रहा है । दिनोंदिन दुबली होती जा रही है । रात-दिन वह यही रटन किया करती है कि 'मुझे ब्रह्मदत्त का शरण है।' एक दिन मुझे अपने हाथ से पत्र लिख कर ब्रह्मदत्त को हार अर्पण करने के साथ उसे पहुंचाने को कहा। मैंने सेवक द्वारा वह पत्र भेजा था।' यों कह कर वह खड़ी रही । मैंने भी प्रत्युत्तर के रूप में पत्र लिख कर उसे चली जाने की आज्ञा दी। उस दिन से ब्रह्मदत्तकुमार भी मध्याह्न के सूर्य की प्रखर किरणों से तपे हुए हाथी के समान दुनिवार्य कामसंताप से तप्त रहने लगा। सचमुच, कामज्वर के ताप से तप्त मनुष्य सुखानुभव नहीं कर सकता। दूसरी ओर दीर्घराजा द्वारा भेजे हुए राजसेवकों ने सारी कौशाम्बी नगरी छान डाली। शरीर में जड़े हुए तीखे कांटों के समान इन दोनों की खोज में वे अब भी इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहे थे। कौशाम्बीनरेश की आज्ञा से भी नगरी में उन दोनों की खोज होने लगी। तब सागरदत्त सेठ ने निधान के समान अपने तलघर में उन्हें छिपा कर उनकी रक्षा की। रात में जब उनकी बाहर जाने की इच्छा हुई तो सागरसेठ उन्हें रथ में बिठा कर कुछ दूर तक साथ गया। बाद में वह वापिस लौट या। सागरसेठ ने जाने के बाद जब वे आगे बढ़ने लगे तो एक उद्यान में नंदनवन की देवी के समान घोर जुते हुए रथ में बैठी हुई एक सुन्दरी को देखा। उसी ने उन्हें आदरपूर्वक पूछा-"आपको इतनी लगन क्यों लगी ? उन दोनों ने भी उससे पूछा-'भद्रे ! तुम हमसे कैसे परिचित हो ? जानती हो, हम कौन है ?" इस पर उसने उत्तर दिया- "इस नगर में कुबेर के दूसरे भाई के समान महाधनी धनप्रवर नाम का सेठ है। बुद्धि के माठ गुणों पर सर्वोपरि विवेक के समान उस सेठ के आठ पुत्रों उपर में विवेकश्री नाम की उनकी पुत्री हूँ। युवावस्था बाते ही मैंने अत्युत्तम वर प्राप्त होने की कामना से इस उचान में अधिष्ठित यक्ष को बहुत बाराधना की। अधिकांश स्त्रियों का इसके सिवाय और कोई मनोरथ नहीं होता।' भक्ति से तुष्ट हो कर यक्षप्रवर ने वरदान दिया-'ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती तेरा पति होगा।' और यह भी बता दिया कि सागरदत्त और बुद्धिल सेठ के मुर्गों की लड़ाई में श्रीवत्स चिह्नवाला तुम्हारे समान रूपवान जो व्यक्ति अपने मित्र के साथ आएगा, उसे तुम अपना पति समझना । जिस समय ब्रह्मदत्त मेरे यक्षायतन में होगा, तभी उसके साथ तेरा प्रथम मिलन होगा। इसलिये हे सुन्दर | मैंने जान लिया है कि आप वही हैं। अत: अब बार पधारो। जैसे ताप से पीड़ित व्यक्ति को जलसंस्पर्श शान्ति देता है, उसी तरह दीपकाल से मुम विरहताप पीड़ित को बाप संगमस्पर्श से शान्ति दो।' 'अच्छा, ऐसा ही होगा' यों कह कर कुमार ने उस अनुरक्ता को स्वीकार किया। उसके आग्रह पर दोनों उसके रथ में बैठे। कहां चलना है? यह पूछने पर उस सन्दरी ने बताया कि .'मगषपर में. मेरा चचेरा भाई धनावह है। वह हमारा बहुत सत्कार करेगा। इसलिये वहीं चलें तो अच्छा है।' इस प्रकार रत्नवती के कहने पर मंत्रीपुत्र ने सारथी बन कर पोड़ों की लगाम उसी ओर मोड़ी।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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