SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश का परिचय देने तथा तपस्या करके आत्मशुद्धि द्वारा आत्मशक्ति प्रगट करने के लिए प्रभावित करने वाला तपस्या-प्रभावक होता है। विद्याप्रमावक-प्रज्ञप्ति, रोहिणी आदि विविध विद्यादेवियां सिद्ध करके तदधिष्ठित विद्याएं प्राप्त करने वाला विद्याप्रमावक होता है । विद्याप्रभावक अपनी विद्या के प्रयोग द्वारा शासन पर आए हुए विविध उपसर्गों, कष्टों और आफतों को दूर करता है। सिद्धि-प्रभावक --बैंक्रिय आदि विविध लब्धियां तथा आणमा आदि विविध सिद्धियां, तथा अंजन, पादलेप आदि आकर्षक तत्रप्रयोग जिसे प्राप्त हो और सघ की प्रभावना के लिए ही उनका प्रयोग करता हो, वह सिद्धिप्रभावक कहलाता है। काव्य प्रभावक (कवि)- गद्य, पद्य आदि में विविध वर्णनात्मक प्रबन्ध या कविता आदि की रचना करके जनता को उस लेख, निबन्ध, कथा या कविता आदि के द्वारा धर्माचरण मे प्रेरित धर्म के प्रति प्रभावित करने वाला काव्यप्रभावक कहलाता है। प्रावनिक आदि आठों प्रकार के प्रभावक अपनी शक्ति के अनुसार देश, काल आदि के अनुरूप जिनशासन के प्रचार-प्रसार में योगदान दे कर प्रभावना करते है। इसलिए प्रभावना को सम्यग्दर्शन का द्वितीय भूषणरूप बताया है । (३) भक्ति-संच की सेवा (वैयावृत्य), विनय करना भन्नि है । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप चतुर्विध धर्मसंघ (गासन) कहलाता है। संघ मे प्रधान ईवाई माधु या साध्वी है । अतः अपने से ज्ञान और चारित्र से अधिक गुण वाले आए, नब खड़े हो कर, सामने स्वागत के लिए जा कर, मस्तक पर अंजलि करके, अथवा उन्हें आसन दे कर उनका मत्कार करना, गुणाधिक चारित्रात्मा के भासन स्वीकार कर लेने पर स्वयं आसन ग्रहण करना, उनका बहमान तथा उनकी उपासना करना, उनको वन्दन करना, उनके पीछे-पीछे चलना; यों आठ प्रकार से उपचारविनय करना भक्ति है, जो आठ कमों को नष्ट करने वाली है। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, नवदीक्षित साधु, रुग्ण, कुल, गण, सघ, माधु, जानवान आदि संघस्थ व्यक्तियों को सेवा (यावृत्य) करना । वैयावृत्य के उत्कृष्ट पात्रों को आहार-पानी, वस्त्र, पात्र उपाश्रय, पट्ट, चौकी, पटरा, आसन (मस्तारत) आदि धर्म-साधन देना, उनकी ओपध भैपज्य आदि द्वारा संवा करना, कठिन मार्ग में उनके सहायक बनना। चतुर्विध मघ पर आए हुए विघ्नो या उपमों का निवारण करना; ये सब प्रकार सेवाभक्ति के है। इनमें शासन की शोभा बढ़ती है, इसलिए भक्ति को सम्यक्त्व का तीसरा भूपण बताया है। (४) जिनशासन में कुशलता-धर्म के सिद्धान्तों को समझाने तथा धार्मिकों पर आई हुई उजनों का मुलझान, ममग्या हल करने की कुशलता भी अनेक व्यक्तियों को धमंसध में स्थिर रखती है, सघसंवा के लिए प्रेरित करती है। जैसे श्रेणिकपुत्र अभयकुमार की कुशलता से अनायंदेशवासी मादक कुमार को प्रतिबोध मिला ; वैसी ही कुशलता प्राप्त करनी चाहिए। (५) तीर्थसेवा-नदी आदि में सुखपूर्वक उतरने के लिए घाट (तीर्थ) होता है, वैसे ही समर से मुखपूर्वक पार उतरने के लिए तीर्थ (धर्म-संघ) होता है। यह तीर्थ दो प्रकार का होता हैजिस भूमि पर तीर्थंकरों का जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुआ, उस स्थान को लोकप्रचलित भाषा में 'ती' कहा जाता है ; इमे जन परिभाषा में द्रव्यतीर्थ कहते हैं। यह भी दर्शनीय होता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy