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________________ सम्यक्त्व के पांच दूषण मगर भावती तो साधु, साध्वी श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध श्रमणसंघ होता है। इसके माहात्म्य के सम्बन्ध में भगवान महावीर और गणधर गौतम का एक संवाद मिलता है - गणधर गौतम ने पूछा"भगवन् । तीर्थकर तीर्थ है अथवा नीर्थ तीर्थ है ?" तब भगवान् ने उत्तर दिया-'गौतम ! तीर्थकर तो तीर्थ (स्वरूप) हैं ही, परन्तु चार वर्ण (साधु साध्वी-श्रावक-श्राविका) वाला श्रमणसंघ भी तीर्थ है।" इस दृष्टि मे प्रथम गणधर आदि भी तीर्थरूप हैं। ऐसे तीर्थ की सेवा (पूर्वोक्त प्रकार से) करना तीर्थ सेवा है, जो सम्यक्त्व की शोभा में चार चांद लगाने वाली है। इस प्रकार सम्यक्त्व के पांच भूषण बता कर अब उसके ५ दूषण बताते हैं -- शंका कांक्षा विचिकित्सा मिथ्याष्यिसनम् । तत्संस्तवश्च पञ्चापं सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ॥१७॥ अर्थ शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि को प्रशंसा और उसका गाढ़ परिचय (संसर्ग), ये पांचों सम्यक्त्व को अत्यन्त दूषित करते हैं। व्याख्या शका आदि पांच दूपण निर्दोष सम्यक्त्व को बहुत दूषित करते हैं, इसलिए इन्हें दूपण कहा है। क्रमशः इनका लक्षण यों है शंका-संदेह करना शंका है। शंका सर्वविषयक (सर्वाश की) भी होती है, देशविषयक (आंशिक) भी । सर्वविषयक शका यथा-पता नहीं, यह धर्म होगा या नहीं ? देशविषयक शंका धर्म के किसी एक अंग के सम्बन्ध में होनी है, जैसे-यह जीव तो है, परन्तु सर्वगत है या असर्वगत ? प्रदेश वाला है या अप्रदेशी ? ये दोनों प्रकार की शंकाएं वीतरागकथित प्रवचन पर अविश्वासरूप होने से सम्यक्त्व को दूपित-मलिन बना देती है ; उसमें चल, मल या अगाढ दोप पैदा कर देती है। जिज्ञासा के रूप मे किसी के सामने कोई शंका प्रस्तुत करना दोषयुक्त नहीं, किन्तु विजिगीषा या अश्रद्धा से प्रेरित हो कर शका करना दोषपूर्ण है । कदाचित् मोहवश कोई मंशय पैदा हो जाय तो श्रद्धा एवं विनय के साथ अगला के समान उसे धारण करके रखे और यथावसर ज्ञानवान महानुभावों के समक्ष प्रगट करे। किसी गंभीर विषय में अपनी दुर्बलमति के कारण अथवा उसका समाधान करने वाले आचार्यों का संयोग न मिलने से या अपने ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण समझने योग्य विषय को अत्यन्त गहन होने से या उदाहरण संभव न होने से उसका यथार्थ अर्थ समझ में न आए तो बुद्धिमान श्रद्धालु व्यक्ति या विचार करे कि वीतराग सर्वज्ञ प्रभु तो यथार्थ कथन करते हैं, वे किसी की ओर से उपकार की आशा-स्पृहा से निरपेक्ष, निःस्वार्थ परोपकारपरायण, जगत में सर्वश्रेष्ठ त्यागी, गगद्वेष-मोह-विजेता होते हैं । वे कदापि विपरीत कथन नहीं करते ! इसलिए ऐसे आप्त (विश्वस्त) पुरुष द्वारा कथित होने से श्रद्धारहित शंका करना उचित नहीं है। उनके वचन तो सर्वथा सत्य हैं, परन्तु मेरी बुद्धिमन्दता या अज्ञानता के कारण समझ में नहीं आ रहे है, तो मुझे धर्य के साथ श्रद्धापूर्वक उस सत्य को मान लेना चाहिए। क्योंकि आगम से जाने जा सकें. ऐसे पदार्थ की हम सरीखे सामान्य व्यक्ति परीक्षा नहीं कर सकते। इसलिए आगमोक्त अमर (सत्य) के प्रति हमे अश्रद्धा नहीं लानी चाहिए, अश्रद्धा से ही व्यक्ति मियादृष्टि बनता है । अतः जिनोक्त शास्त्र हमारे लिए प्रमाण हैं ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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