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________________ ॐ अर्हते नमः २ : द्वितीय प्रकाश सम्यक्त्वका स्वरूप इससे पहले श्रावकधर्म के योग्य अधिकारी-मार्गानुसारी सद्गृहस्थ का वर्णन किया गया। किन्तु श्रावकधर्म पंच-अणुव्रतादि १२ व्रतों से युक्त विशेष योग्य गृहस्थ के लिए होता है । वह द्वादशव्रतयुक्त श्रावकधर्म सम्यक्त्वमूलक होता है। इसलिए अब हम श्रावकधर्म के मूल-सम्यक्त्व का स्वरूप बताते हैं सम्यक्त्वमलानि पंचाणवतानि गणास्त्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम् ॥१॥ अर्थ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ; यों मिला कर गृहस्य (श्रावक) धर्म के बारह व्रत सम्यक्त्वमूलक होते हैं। व्याख्या श्रावकव्रतों का मूल कारण सम्यक्त्व है। यानी बारह व्रतों की जड़ सम्यक्त्व है। महाव्रतों की अपेक्षा से छोटे होने से अहिंसादि पांच अणुव्रत कहलाते हैं, वे ही मूलगुण हैं। दिशापरिमाणादि तीन उत्तरगुणरूप होने से गूणवत हैं। सदैव पुनः पुनः अभ्यास करने योग्य होने से सामायिक आदि ४ शिक्षावत कहलाते हैं । इसी कारण शिक्षाव्रतों को गुणवतों से अलग बताये हैं। इन बारह व्रतों में से पांच अणुव्रत और तीन गुणवत गृहस्थधावक के लिए प्रायः जीवनभर के लिए होते हैं। बारहव्रतों को सम्यक्त्वमूलक कहा है, इसलिए अब सम्यक्त्व का स्वरूप बताते हैं या देवे दवताबुद्धि रौ च गुरुतामतिः। धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वामदःच्यते ॥२॥ अर्थ साधक की देव ( हन्त आदि वीतराग) में जो देवत्वबुद्धि, गुरु में जो गुरुत्वबुद्धि और धर्म में शुद्ध धर्म की बुद्धि होती है, उसे ही सम्यक्त्व कहा जाता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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