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________________ ६२ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश व्याख्या देवत्व, गुरुत्व और धर्मत्व का लक्षण हम आगे बतायेंगे। मूल में तो देव, गुरु और धर्म में अज्ञान, संशय और विपर्यय से रहित निश्चयपूर्वक निर्मल श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा है । यद्यपि साधुओं और श्रावकों की जिनोक्त तत्वों पर समान रुचि भी सम्यक्त्व का लक्षण है; तथापि गृहस्थों के लिए देव, गुरु और धर्मतत्त्व में पूज्यत्व स्थापित करके उनकी उपासना और तद्योग्य अनुष्ठान करना उपयुक्त होने से उसके लिए देव, गुरु और धर्मतत्त्व के प्रति प्रतिपत्तिलक्षण सम्यक्त्व कहा है । — सम्यक्त्व के तीन भेद होते हैं ओपशमिक, क्षायोपमिक और क्षायिक उपशम कहते हैं। राख से ढकी हुई अग्नि के समान मिध्यात्वमोहनीय कर्म तथा अनुन्तानुवन्धी कोध मान, माया और लोभ की अनुदयावस्था को । इस प्रकार के उपशम से युक्त सम्यक्त्व को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । वह अनादिकालीन मिध्यादृष्टि आत्मा को तीनकरणपूर्वक अन्तर्मुहूर्त-परिमित कान के लिए होता है; और चारगति में रहने वाले जीवों को होता है । अथवा उपशमश्रेणि पर चढ़े हुए साधक को होता है । इसीलिए शास्त्र में कहा है -उपशमश्रेणि पर आरूढ़ व्यक्ति को अपशमिक सम्यक्त्व होता है । अथवा तीन पुंज नहीं किये हों, किन्तु मिथ्यात्व नष्ट कर दिया हो, वह उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है । दूसरा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उदय में आए हुए मिथ्यात्व मोहनीय और अनुन्तः नुवन्धी चार कषायों को अंशत: ( देश से) समूल नाशरूप क्षय कर देना और उदय में नहीं आए हुए का उपशम करना; इस प्रकार क्षय से युक्त उपशम-क्षयोपशम कहलाता है और क्षायोपशम मे सम्बन्धित सम्यक्व क्षयोपशमिक कहलाता है । इस सम्यक्त्व में शुभकर्मों का वेदन होने से इसे वेवक-सम्यक्त्व भी कहते हैं। जबकि औपशमिक सम्यक्त्व शुभकर्मों के वेदन से रहित होता है । यही औपशमिक और क्षायोपशमिक में अन्तर है । तत्वज्ञों ने कहा है- 'क्षायोपशमिक में तो जीव किसी अंश तक सत्कर्मों का छेदन (क्षय) कर भी लेता है, हालांकि रसोदय से नहीं करता; मगर ओपशमिक सम्यक्त्व में उपशान्तकपाययुक्त जीत्र तो सत्कर्म का क्षेदन (क्षय) बिलकुल नहीं कर पाता। इसलिए क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति ६६ सागरोपम की होती है । कहा है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी विजयादिक देवलोक में दो बार जाता है और अधिकतर मनुष्यजन्म प्राप्त करके उपर्युक्त स्थिति को पूर्ण करता है। क्षायोपशमिक मम्यक्त्व समस्त जीवों को अपेक्षा में सर्वकाल में रहता है। तीमरा क्षायिक सम्यक्त्व मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबन्धी चार कषायों का समूल नष्ट होना क्षय कहलाता है, और क्षय से सम्बन्धित सम्यक्त्व क्षायिक कहलाता है । यह सादि अनन्त है । -- अब कुछ आन्तरश्लोकों में सम्यक्त्व की महिमा बतलाते हैं- 'सम्यक्त्व बोधिवृक्ष का मूल है; पुण्यनगर का द्वार है; निर्वाण - महल की पीटिका है; सर्वसम्पत्तियों का भंडार है । जैसे सब रत्नों का आधार समुद्र है, वैसे ही सम्यक्त्व गुणरत्नों का आधार है और चारित्ररूपी धन का पात्र है । जैसे पात्र (आधार) के बिना धन रह नहीं सकता, वैसे ही सम्यक्त्व के बिना चारित्ररूपी धन रह नहीं सकता । ऐसे उत्तम सम्यक्त्व की कौन प्रशंसा नहीं करेगा ? जैसे सूर्योदय होने से अधेरा टिक नहीं सकता, वैसे ही सम्यक्त्व - सुवासित व्यक्ति में अज्ञानान्धकार टिक नहीं सकता । तिर्यञ्चगति और नरकगति के द्वार बंद करने के लिए सम्यक्त्व अगंला ( आगल) के समान है। देवलोक, मानवलोक तथा मोक्ष के सुख के द्वार खोलने के लिए सम्यक्त्व कुंजी के समान है। सम्यक्त्व प्राप्त करने से पहले अगर आयुष्यबन्ध न हुआ हो, और आयुष्यबन्ध होने से पहले सम्यक्त्व का त्याग न किया हो तो वह जीब सिवाय वैमानिक देव के दूसरा आयुष्य नहीं बांधता । जिसने सिर्फ अन्तर्मुहूर्तभर यदि इस सम्यक्त्व का सेवन करके
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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