SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ बीमशास्त्र:प्रथम प्रकाश (१०) जो उपाव वाले स्थान को शीघ्र छोड़ देता है-अपने राज्य या दूसरे देश के राज्य की ओर से भय हो, दुष्काल हो, महामारी आदि रोग का उपद्रव हो, महायुद्ध छिड़ गया हो, लोगों के विरोध होने से उस स्थान, गांव या नगर आदि में सर्वत्र अशान्ति पैदा हो गई हो, रात-दिन लड़ाई-झगड़ा रहता हो तो सद्गृहस्थ को वह स्थान शीघ्र छोड़ देना चाहिए। यदि वह उस स्थान का त्याग नहीं करता है तो पहले के कमाये हुए धर्म, अर्थ और काम का भी विनाश कर बैठता है और नवीन उपार्जन नहीं कर सकने से अपने दोनों लोक बिगाड़ता है। (११) निन्दनीय कार्य का त्यागी सद्गृहस्थ को देश, जाति एवं कुल की दृष्टि से गहितनिन्दित कार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर, देश की दृष्टि से गर्हित जैसे सौवीर देश में खेती और लाटदेश में मदिरापान, निन्दनीय माने जाते हैं। जाति की अपेक्षा से 'ब्राह्मण का सुरापान करना, तिल, नमक आदि का व्यापार करना निन्ध माना जाता है । कुल की अपेक्षा से चौलुक्य वंश में मदिरापान निन्द्य समझा जाता है । इस प्रकार देश, कुल और जाति की दृष्टि से ऐसे निन्दनीय कार्य करने वाले लोग अन्य अच्छे धार्मिक कार्य करते हैं तो भी लोगों में हंसी के पात्र समझे जाते हैं। (१२) आय के अनुसार व्यय करना- सद्गृहस्थ को सदा यह सोच कर ही खर्च करना चाहिए कि मेरी आय कितनी है ? उसे अपने परिवार के लिए, आश्रितों के भरण-पोषण के लिए, अपने निजी उपयोग के लिए तथा देवता और अतिथियों के पूजन-सत्कार में द्रव्य खर्च करने से पहले यह देखना चाहिए कि मुझे अपनी खेती, पशुपालन या व्यापार आदि से कितनी आय है ? यह देख कर ही तदनुसार खर्च करना चाहिए । नीतिशास्त्र में कहा गया है-"व्यापार आदि में जो कमाई हुई हो, तदनुसार ही दान देना, लाभ के अनुसार उपभोग करना और उचित रकम बचा कर अमानत (सुरक्षित) निधि के रूप में (संकट के अवसरों पर) रखना चाहिए।" कई नीतिकारों ने कहा है-'कमाई के अनुसार चार विभाग करने चाहिए । अपनी आय का चौथा भाग भंडार में रखना चाहिए। चौथा भाग व्याज या व्यापार में, चौथा भाग धर्मकार्य और उपभोग में और चौथा भाग आश्रितों के भरण-पोषण में लगाए।' कुछ नीति. कारों का कहना है कि, 'कमाई हुई रकम में से आधी से अधिक रकम धार्मिक कार्यों में लगाए और शेष बची हुई थोड़ी रकम सक्रिय होकर इस लोक के कार्य में लगाए । यदि गृहस्थ अनुचितरूप से अनापसनाप खर्च करता है, तो जैसे दिनोंदिन बढ़ता हुआ रोग शरीर को दुबल बना देता है वैसे ही समग्र बंभव भी प्रतिदिन के अत्यधिक अव्यय से पुरुष को सभी सुव्यवहारों के लिए असमर्थ बना देता है । और भी कहा है-कि आय और व्यय का हिसाब किये बिना जो कुबेर के समान अत्यधिक खर्च करता है, वह थोड़े ही समय में भिखारी बन जाता है। (१३) संपत्ति के अनुसार वेषधारण · सद्गृहस्य को अपनी सम्पत्ति, हैसियत, वैभव, अवस्था देश, काल और जाति के अनुसार ही वस्त्र, अलंकार आदि धारण करना चाहिए । जो अपनी हैसियत या सम्पत्ति के अनुसार पोशाक धारण नहीं करता; प्रत्युत तड़कीली-भड़कीली पोशाक पहन कर दिखावा करता है, वह लोगों में हंसी का पात्र होता है । लोग उसकी चटकीली या बहुमूल्य पोशाक पर से अनुमान लगा लेते हैं कि इसने बेईमानी, अन्याय, अत्याचार या निन्दनीय कर्म करके पैसा कमाया होगा । अथवा लोग उसके बारे में शंका करने लगते हैं कि आज-कल तो इसके बहुत कमाई होती होगी; तभी तो इतना अफलातून खर्च करता है और ऐसी बढ़िया वेशकीमती पोशाक पहनता है। इसका एक दूसरा अर्थ यह भी है कि आमदनी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy