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________________ सद्गृस्थ के ३५ नैतिक नियमों पर विवेचन अतः ऐसे विशिष्ट लोगों की निन्दा का खासतौर से त्याग करना चाहिए ; क्योंकि उससे तत्काल विपरीत परिणाम आता है। (७) सद्गृहस्व के रहने का स्थान-सद्गृहस्थ के रहने का घर ऐसा हो, जहाँ आने-जाने के द्वार अधिक न हो; क्योंकि अनेकों द्वार होने से चोरी, जारी आदि का भय होता है । इसलिए अनेक द्वारों का निषेध करते हुए कहते हैं कि 'गृहस्थ को कम द्वार वाले एवं सुरक्षित घर में रहना चाहिए और घर भी योग्य स्थान में हो । जहां हड्डियों आदि का ढेर न हो, तीक्ष्ण कांटे न हो तथा घर के आस-पास बहुत-सी दूब, घास, प्रवाल, पौधे, प्रशस्त वनस्पति उगी हुई हो। जहाँ मिट्टी अच्छे रंग की और सुगन्धित हो, जहां का पानी स्वादिष्ट हो, ऐसे स्थान को प्रशस्त माना गया है। स्थान के गुण-दोष शकुनशास्त्र. स्वप्नशास्त्र. या उस विषय के शास्त्र आदि के बल से जाने जा सकते हैं। इसी तरह स्थान का और भी विशेष वर्णन करते हैं-'वह मकान न अतिप्रकट हो और न अतिगुप्त हो । अतिप्रकट होने से अर्थात् बिल्कुल खुली जगह में होने से उपद्रव की सम्भावना रहती है । और अतिगुप्त होने से चारों तरफ से घरों के कारण घिरा रहने से घर का शामा छिप जाती है। आग लगने पर ऐसे मकान से बाहर निकलना बड़ा कठिन होता है। तो फिर स्थान कैसा होना चाहिए? तीसरी बात,जो घर के सम्बन्ध में देखनी चाहिए, वह है-अच्छे सदाचारी पड़ोसी का होना। बुरे या गंदे आचरण वाले पडोसी. जिस घर के पास होंगे, वहां उनका वार्तालाप सुन कर, उनकी चेष्टाए देख कर, गुणी लोगों के गुणों की भी हानि हो जाएगी। शास्त्र में खराब पड़ोसी इस प्रकार के बताए गए है-वेश्या, दासी, नपुंसक, नर्तक, भिक्षक, मंगता, कंगाल, चांडाल, मछआ. शिकारी, मांत्रिक-तांत्रिक (अघोरी).नीचजातीय भील आदि। इस प्रकार के पड़ोसियों का होना अच्छा नहीं होता । इसलिए ऐसे पड़ोसियों से दूर रहना चाहिए। (८) सदाचारी के साथ संगति-सद्गृहस्थ के लिए सत्संग का बड़ा महत्व है । जो इस लोक और परलोक में हितकर प्रवृत्ति करते हों, उन्हीं की संगति अच्छी मानी गई है, जो खल, ठग, जार, भाट, क्रूर, सैनिक, नट आदि हों उनकी संगति करने से अपने शील का नाश होता है। नीतिकारों ने कहा है-"यदि तुम सज्जन पुरुषों की संगति करोगे तो तुम्हारा भविष्य सुधर जायेगा और दुर्जन का सहवास करोगे तो भविष्य नष्ट हो जाएगा । अव्वल तो संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है, लेकिन करना ही है तो सज्जन पुरुषों का सग करना चाहिए, क्योंकि सत्पुरुषों का संग औषयरूप होता है। (९) माता-पिता का पूजक-वही सद्गृहस्थ उत्तम माना जाता है, जो तीनों समय मातापिता को नमस्कार करता है ; उनको परलोक-हितकारी धर्मानुष्ठान में लगाता है ; उनका सत्कारसम्मान करता है तथा प्रत्येक कार्य में उनकी आज्ञा का पालन करता है। अच्छे रंग और सुगन्ध वाले पुष्प-फलादि पहले उन्हें दे कर बाद में स्वयं उपयोग करता है । उनको पहले भोजन करवा कर फिर स्वयं भोजन करता है । जो ऐसा नहीं करता उसके परिवार में विनय की परम्परा नहीं पड़ सकेगी, तथा वहां प्रायः उच्छृखल, अविनीत, बहुत बकझक करने वाले, कलहकारी बढ़ेंगे। इसलिए माता-पिता की सेवाभक्ति-पूजा प्रत्येक गृहस्थ को करनी चाहिए। माता को पहला स्थान इसलिए दिया गया है कि पिता की अपेक्षा माता अधिक पूजनीय होती है। इसलिए "पिता-माता" नहीं कह कर "माता-पिता" कहा जाता है और मां को प्रथम स्थान दिया जाता है। मनुस्मृति में कहा है कि "दस उपाध्यायों के बराबर बाचार्य होता है, सौ आचार्यों के बराबर एक पिता और हजार पिताओं के बराबर एक माता होती है। इस कारण माता का गौरव अधिक है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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