SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८) [ भावकधर्म-प्रकाश तो उनको भक्तिपूर्वक भोजन देकर मैं भोजन करें। भरत चक्रवर्ती जैसे धर्मात्मा भी भोजनके समय रास्ते पर आकर मुनिराजके आगमनकी प्रतीक्षा करते थे; मुनिराजके M TmM -:-:ो पधारने पर परम भक्तिपूर्वक आहारदान करते थे। अहा ! ऐसा लगे कि आंगनमें कल्पवृक्ष फलित हुआ, इससे भी अधिक आनन्द मोक्षमार्गसाधक मुनिराजको अपने मांगनमें देखकर धर्मात्माको होता है। अपनी रागरहित चैतन्यस्वभावकी दृष्टि है और सर्वसंगत्यागकी बुद्धि है वहाँ गृहस्थको ऐसे शुभभाव आते हैं। उस शुभरागकी मर्यादा जितनी है उतनी वह जानता है। अन्तरका मोक्षमार्ग तो रागसे पार चैतन्यस्वभावके आश्रयसे परिणमता है। श्रावकके व्रतमें मात्र शुभरागकी बात नहीं है। जो शुभराग है उसे तो जैनशासनमें पुण्य कहा है और उस समय श्रावकको जितनी शुद्धता स्वभावके आश्रयसे वर्तती है उतना धर्म है, वह परमार्थ-व्रत है, और मोक्षका साधन है-ऐसा समझना ।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy