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________________ [४१ भावकमर्म-प्रकाश ] ........ [७] .............. गृहस्थको सत्पात्रदानकी मुख्यता भाई ! लक्ष्मी तो क्षणभंगुर है; तू दान द्वारा लक्ष्मी मादिका प्रेम हटाकर धर्मका प्रेम बढ़ा। जिसे धर्मका उल्लास होता है उसे धर्म प्रसंगमें तन-मन-धन खर्च करनेका उल्लास आये बिना नहीं राता । ' धर्मको शोभा किस प्रकार बड़े, धर्मात्मा किस प्रकार आगे बढ़े और साधर्मियोंको कोई प्रतिकूलता हो तो वह कैसे दूर हो-ऐसा प्रसंग विचारकर श्रावक उसमें उत्साहसे वर्तता है। ऐसे धर्मके प्रेमी श्रावकको दानके भाव होते हैं। सम्यग्दर्शनपूर्वक देशवती श्रावकको अष्ट मूलगुण और बारह अणुव्रत होते है-यह बताया । अब कहते हैं कि-गृहस्थको यद्यपि जिनपूजा भादि अनेक कार्य होते हैं तो भी उनमें सत्पात्रदान सबसे मुख्य है: देवाराधनपूजनादिबहुषु व्यापारकार्येषु सत् पुण्योपार्जनहेतुषु प्रतिदिनं संजायमानेष्वपि । संसारार्णवतारणे प्रवहणं सत्पात्रमुद्दिश्य यत् तद्देशव्रतधारिणो धनवतो दानं प्रकृष्टो गुणः ॥ ७ ॥ श्रावकको सत् पुण्योपार्जनके कारणरूप जिनदेवका आराधन-पूजन आदि बनेक कार्य हमेशा होते हैं। उनमें भी धनवान श्रावकका तो, संसार-समुद्रको पार करनेके लिये नौका समान ऐसा सत्पात्रदान उत्तम गुण है; अर्थात श्रावकके सब कार्यों में दान मुख्य कार्य है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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