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________________ थापकधर्म-प्रकाश ] [७ मौर चार शिक्षाबत होते हैं। सामायिक-अर्थात् पंचमगुणस्थानवी भाषक प्रतिदिन परिणामको अन्तरमें एकाग्र करनेका अभ्यास करे। प्रौषधोपवास-अष्टमी चौदसके दिनों में श्रावक उपवास करके परिणामको विशेष एकाग्र करनेका प्रयोग करे। सभी आरम्भ छोड़कर धर्मध्यानमें ही पूरा दिन व्यतीत करे। दान-अपनी शक्तिअनुमार योग्य वस्तुका दान करे: आहारदान, शास्त्रदान, औषधदान, अभयदान,-इसप्रकाररके दान श्रावक करे। उनका विशेष वर्णन आगे करेंगे। अतिथिके प्रति अर्थात् मुनि या धर्मात्मा श्रावकके प्रति बहुमानपूर्वक आहारदानादि करे, शास्त्र देवे, शानका प्रचार कैसे बढ़े-ऐसी भावना उसको होती है। इसे अतिथिसंविभाग-व्रत भी कहते हैं। भोगोपभोगपरिमाण बत-अर्थात् खाने-पीने इत्यादि की जो वस्तु एकबार उपयोगमें आतो है उसे भोग-सामग्री कहते हैं, और वस्त्रादि जो सामग्री बारम्बार उपयोगमें आवे उसे उपभोग-सामग्री कहते हैं, उसका प्रमाण करे, मर्यादा करे। उसमें सुखबुद्धि तो पहलेसे ही छुट गई है, क्योंकि जिसमें सुख माने उसकी मर्यादा नहीं होती। इसप्रकार पाँच अणुव्रत और चार शिक्षावन-ऐसे बारह व्रत श्रावकको होते हैं। इन व्रतोंमें जो शुभविकल्प है वह तो पुण्यबन्धका कारण है और उस समय स्वद्रव्यके आलम्बनरूप जितनी शुद्धता होती है वह मवर-निजंग है। शायक आत्मा रागके एक अंशका भी कर्ता नहीं, और गगके एक अंश भी उसे लाभ नहीं ऐसा भान धर्मीको बना रहता है। यदि ज्ञानमें रागका कर्तृत्व माने अथवा रागसे लाभ माने तो मिथ्यात्व है। मेवानीको शुभरागमें पापसे बना उतना लाभ कहलाता है, परन्तु निश्चयधर्मका लाग उस शुभरागमें नहीं। धर्मका लाभ तो जितना बीतगगमाव हुआ उतना ही है। सम्यक्त्वसहित अंशरूपमें वीतरागभावपूर्वक श्रावकपना शोभता है। ___ भाई, आत्माके खजानेको खोलनेके लिये ऐमा अवसर मिला, वहाँ विकथामें, पापस्थानमें और पापावारमें ममय गमाना केसे निमे ? मांश परमात्मा द्वारा कहे हुए आत्माके शुद्ध स्वभावको लशमें लेकर बारम्बार उसको अनुभवमें ला और उसमें एकाग्रताको वृद्धि कर । लोकमें ममतावाले जीव भोजन आदि मर्वप्रसंगमें स्त्री-पुत्रादिको ममतासे याद करते हैं उसी प्रकार धर्मके प्रेमी जीव भोजनादि सर्व प्रसंगमें प्रेमपूर्वक धर्मात्माको याद करते हैं कि मेरे आँगनमें कोई धर्मात्मा अथवा कोई मुनिराज पधारें
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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