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________________ ४४) [ भावकधर्म-प्रकाश आदिम मधु सेवन करते हैं, परन्तु मांसकी तरह ही मधुको भी अभक्ष्य गिना है। रात्रि भोजनमें भी प्रसहिंसाका बढ़ा दोष है। भावकको ऐसे परिणाम नहीं होते। भाई, अनन्तकालमें तुझे ऐसा मनुष्य-अवतार मिला तो उसमें आत्माका हित किस प्रकार हो-उसका विचार कर । एक अंगुल जितने क्षेत्रमें असंख्यात औदारिकशरीर; एक शरीरमें अनन्त जीव-वे कितने ? अभीतक जितने सिद्ध हुए उनसे भी अनन्तगुने निगोद जीव एक-एक शरीरमें हैं; उस निगोदमेंसे निकलकर सपना प्राप्त करना और उसमें यह मनुष्यपना और जैनधर्मका ऐसा अवसर मिलना तो बहुत ही दुर्लभ है। भाई, तुझे उसकी प्राप्ति हुई है तो आत्माका जिज्ञासु होकर मुनिदशा या श्रावकदशा प्रगट कर । यह अवसर धर्मके सेवन बिना निष्फल न गँवा। सर्वप्रभु द्वारा कहे हुये आत्माके हितका सचा रास्ता अनन्तकालमें तूने नहीं देखासेवन नहीं किया; वह मार्ग यहां सर्वह परमात्माके अनुगामी सन्त तुझे बता रहे हैं। सती राजमती, द्रौपदी, सीताजी, ब्राह्मी-सुंदरी, चन्दना, अंजना, तथा रामचंद्रजी, भरत, सुदर्शन, पारिषेणकुमार आदि पूर्वमें राजपाटमें थे तब भी वे संसारसे एकदम उदासीन थे, वे भी आत्माके भान सहित धर्मका सेवन करते थे । अर्थात् गृहस्थअवस्थामें हो सके ऐसी (श्रावकधर्मकी) यह बात है । पश्चात् छह-सातवें गुणस्थान रूप मुनिदशा तो विशेष ऊँची दशा है, वह गृहस्थ-अवस्थामें रहकर नहीं हो सकती परन्तु गृहस्थ-अवस्थामें रहकर जो सम्यग्दर्शनपूर्वक शक्ति-अनुसार वीतरागधर्मका सेवन करते वे भी अल्पकालमें मुनिदशा और केवलज्ञान प्रगट कर अवश्य मोक्षको प्राप्त होंगे। शुद्धस्वरूपका जहाँ सम्यक निर्णय हुआ यहाँ मोक्षका दरवाजा * ॐ खुल गया। गृहवासमें रहनेवाले सम्यग्दृष्टिको भी आत्मदर्शन द्वारा . मोक्षका दरवाजा खुल गया है। जो शुद्ध स्वतत्त्वका उपादेयपना और समस्त परभावोंका अनुपादेयपना-ऐसे मेदज्ञानके बलसे मोक्षमार्गको साध रहा है, ऐसे निर्मोही गृहस्थको समन्तभद्रस्वामीने * प्रशंसनीय और “ मोक्षमार्गस्थ" कहा है।
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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