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________________ भासी -प्रकाश -परन्तु भाई ! श्रावकको तो कितना राग घट गया होता है? उसका विवेक कितना होता है ! एकभवावतारी इन्द्र और सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी अपेक्षा ऊँची जिसकी पदवी उसके विवेककी और उसके मन्द रागको क्या बात ? वह अन्दर शुद्धात्माको दृष्टिमें लेकर साध रहा है और पर्यायमें राग बहुत ही घट गया है । मुनिकी अपेक्षा थोड़ी ही कम इसकी दशा है। यह श्रावकदशा अलौकिक है। वहाँ प्रसहिंसाके भाव नहीं होते अतः बाहरमें भी प्रसहिंसाका आचरण सहज ही नहीं होता,-ऐसी संधि है। अन्दर प्रसहिंसाके परिणाम न हों और बाहर हिंसाकी चाहे जैसी प्रवृत्ति बना करे ऐसा नहीं बनता। कोई कहे कि सभी अभक्ष्य खाना सही परन्तु भाष नहीं करना, तो वह स्वच्छन्दी है, अपने परिणामका उसे विवेक नहीं। भाई, जहाँ अन्दरसे पापके भाव छूट गये वहाँ, “याहरमें पापकी क्रिया भले ही होवे " ऐसी उल्टी वृत्ति उठे ही कैसे ? मुखमें कन्दमूल भक्षण करता हो और कहे कि हमें राग नहीं, यह तो स्वच्छन्दता है। भाई, यह तो वीतरागका मार्ग है । त स्पन्दपूर्वक रागका सेवन करे और तुझे वीतरागमार्ग हाथमें आ जावे ऐसा नहीं बनता। स्वच्छन्दतापूर्वक रागको सेवे और अपनेको मोक्षमार्गी मान ले उसकी तो दृष्टि भी चोखी नहीं; सम्यग्दर्शन ही नहीं, वहाँ श्रावकपनेकी अथवा मोक्षमार्गकी बात कमी ? बीड़ी-तम्बाकूका व्यसन अथवा बासी अथाणा-मुरव्या इन सबोंमें प्रसहिंसा है, श्रावकको उसका सेवन नहीं होता। इस प्रकार प्रसहिंसाके जितने स्थान हों, जहाँ जहाँ अहिंसाकी सम्भावना हो वैसे आचरण थावकको होते नहीं ऐसा समझ लेना । ___ मद्य, मांस और मधु अर्थात् शहद, तथा पांच प्रकारके उवम्बर फल, इनका त्याग तो श्रावकको प्रथम ही होता है ।-ऐसा पुरुषार्थसिद्धि-उपायमें अमृतचन्द्राचार्यदेवने कहा है। जिन्हें इनका त्याग नहीं उन्हें व्यवहारसे भी श्रावकपना नहीं होता और वे धर्मश्रवणके भी योग्य नहीं। समन्तभद्रस्वामीने श्री रत्नकरंडश्रावकाचारमें त्रसहिंसादिके त्यागरूप पांच अणुव्रतका पालन तथा मद्य-मांस-मधुका त्याग-इस प्रकार आठ मूलगुण कहे हैं। ___ मुख्यतः तो दोनोंमें प्रसहिंसा सम्बन्धी तीव पाप-परिणामोंके त्यागकी बात है। जिस गृहस्थको सम्यग्दर्शनपूर्वक पांच पाप और तीन 'म'कारके त्याग की उडता हुई उसने समस्त गुणरूपी महलकी नींव डाली । अनादिसे संसारभ्रमणका कारण जो मिथ्यात्व और तीव्र पाप उसका अभाव होते ही जीव अनेक गुण ग्रहणका पात्र हुआ । इसलिये इन आठ न्यागोंको अष्ट मूलगुण कहा है। बहुतसे लोग दवा
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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