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________________ भावधर्म-प्रकाश [. ... * ......************** ...........[ ६ ]....... श्रावकके बारह व्रत ....... 9999900000000 0 00000000sex अपने आंगनमें मुनिराजको देखते ही धर्मात्माको अत्यन्त ४ आनन्द होता है । श्रावकके आठ प्रकारको कषायके अभावसे सम्यक्त्व पूर्वक जितनी शुद्धता प्रगट हुई है उतना मोक्षमार्ग है। ऐसा मोक्षमार्ग 8 हो वहाँ त्रसहिंसाके परिणाम नहीं होते। भाई ! आत्माका खजाना 8 खोलनेके लिये यह अवसर मिला, उसमें विकथामें समय नष्ट करना कैसे शोभे ? सम्यक्त्वसहित आंशिक वीतरागता पूर्वक श्रावकपना 8 षोभता है। 800599999900 * 9999999999908 पांचवीं गाथामें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत ऐसे जो बारह व्रत कहे वे कौन कौन हैं ? -यह बताकर उनका पालन करनेको कहते हैं: हन्ति स्थावरदेहिनः स्वविषये सर्वान्त्रसान् रक्षति ब्रूते सत्यमचौर्यत्तिमबलां शुद्धां निजां सेवते । दिग्देशव्रत दण्डवर्जनमतः सामायिकं प्रौषधं दानं भोगयुगपमाणमुररी कुर्याद् गृहीति व्रती ॥६॥ देशवती धावकको प्रयोजनवश (आहार आदिमें) स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है परन्तु समस्त प्रस जीवोंकी तो रक्षा करता है। सत्य बोलता है, मचौर्यबत पालता है, शुद्ध स्वस्त्रीके सेवनमें संतोष अर्थात् परस्त्री सेवनका त्याग होता है तथा पाँचौं व्रत परिग्रहकी मर्यादा भी श्रावकको होती है। अभी उसके मुनिदशा नहीं अर्थात् सर्व परिग्रहका भाव छटा नहीं, परन्तु उसकी मर्यादा आ गई । परिप्रहमें कहीं सुख नहीं है, ऐसा मान है और "कोई भी परद्रव्य मेरा नहीं, मैं तो पानमात्र हूँ" ऐसी अन्तईटिमें तो सर्व परिग्रह झूटा ही हुआ है, परन्तु चारित्र
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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