SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावधर्म प्रकाश [२७ था। महान देव और राजा-महाराजा अनन्तबार हुवा, उसी प्रकार घोर नरक-तिर्यचके दुःख भी अनन्त बार भोगे; परन्तु मैं स्वयं ज्ञानगुणका भंडार और मानन्द-स्वरूप -ऐसी आत्मप्रतीति या अनुभव उसने पूर्व में कभी नहीं किया । सन्त करुणापूर्वक कहते हैं कि हे भाई ! तुझे ऐसे चैतन्यतत्त्वकी प्रतीतिका अवसर पुनः पुनः कहाँ मिलेमा ? इसलिये ऐसा अवसर प्राप्त कर उसका उद्यम कर; जिससे इस भवदुःखसे तेरा छुटकारा हो। इस सम्यग्दर्शनका साधन क्या? तो कहते हैं कि-भाई, तेरे सम्यग्दर्शनका साधन तो तेरेमें होता है कि तेरेसे बाहर होता है ? आत्मा स्वयं सत्स्वभावीसर्वशस्वभावी परमात्मा है, उसमें अन्तर्मुख होनेसे ही परमात्मा होता है। बाहरके साधनसे नहीं होता । अन्तरमें देखने वाला अन्तरआत्मा है और याहरसे माननेवाला बहिरात्मा है। जैसे आमको गुठलीमेंसे आम और बबूलमेंसे बबूल फलता है, उमी प्रकार आत्मप्रतीतिरूप सम्यग्दर्शनमेंसे तो मोक्षके आम फलते हैं, और मिथ्यात्वरूप बबूलमेंसे बबूल जैसी संसारकी चारगति फूटती हैं। शुद्धस्वभावमेंसे संसरण करके (बाहर निकलके) विकारभावमें परिणमित होना संसार है। शुद्धस्वभावके आश्रयसे विकारका अभाव और पूर्णानंदकी प्राप्ति मोक्ष है। इसप्रकार आत्माका संसार और मोक्ष सभी स्वयमें ही समाविष्ट है उसका कारण भी स्वयंमें ही है। बाहरकी अन्य कोई वस्तु आत्माके संसारमोक्षका कारण नहीं। जो आत्माका पूर्ण अस्तित्व माने, संसार और मोक्षको माने, चार गति माने, चारों गतियोंमें दुःख लगे और उससे छूटना चाहं-ऐसे आस्तिक जिज्ञासु जीवके लिये यह बात है। जगतमें भिन्न भिन्न अनन्त आत्माएँ अनादि-अनन्त है। आत्मा अभी तक कहाँ रहा? कि आत्माके भान बिना संसारकी भिन्न गिन्न गतियोंमें भिन्न शरीर धारण करके दुःखी हुआ। अब उनसे कैसे छूटा जाय और मोक्ष कैसे प्राप्त हो उसकी यह बात है। अरे जीव ! अहानसे इस संसारमें तूने जो दुःख भोगे उनकी क्या बात ? उसमें सत्समागमसे सत्य समझनेका यह उत्तम अवसर आया है। ऐसे समय जो आत्माकी दरकार करके सम्यग्दर्शन नहीं प्राप्त किया तो समुद्र में डाल दिये रत्नकी तरह इस भवसमुद्र में तेरा कहीं ठिकाना नहीं लगेगा,
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy