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________________ २८) [ भावकधर्म-प्रकाश पुनः पुनः ऐसा उत्तम अवसर हाथ नहीं आता। “सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति महा दुर्लभ जानकर उसका परम उद्यम कर । यहाँ तो सम्यग्दर्शनके पश्चात् श्रावकके व्रतका प्रकाशन करना है, परन्तु उसके पूर्व यह बताया कि व्रतकी भूमिका सम्यक्त है; सम्यग्दृष्टिको राग करनेकी बुद्धि नहीं, राग द्वारा मोक्षमार्ग सधेगा ऐसा वह नहीं मानता; उसे भूमिका अनुसार रागके त्यागरूप व्रत होते हैं। व्रतमें जो शुभराग रहा उसे वह श्रद्धा आदरणीय नहीं मानता। चैतन्यस्वरूपमें थोड़ी एकाग्रता होते ही अनन्तानुबन्धी कषायके पश्चात् अप्रत्याख्यान सम्बधी कषायोंका अभाव होकर पंचम गुणस्थानके योग्य जो शुद्धि हुई वह सच्चा धर्म है। चौथे गुणस्थानवर्ती सर्वार्थ सिद्धिके देवकी अपेक्षा पांच गुणस्थान वाले श्रावकको आत्माका विशेष आनन्द है;-पश्चात् भले ही वह मनुष्य हो या तिर्यच । उत्तम पुरुषोंको सम्यग्दर्शन प्रगट कर मुनिके महावत या श्रावकके देशव्रतका पालन करना चाहिये। रागमें किसी प्रकार एकत्वबुद्धि नहीं हो और शुद्ध-स्वभावकी दृष्टि नहीं छूटे-इस प्रकार सम्यग्दर्शनके निरन्तर पालनपूर्वक धर्मका उपदेश है। ___ अरे जीव ! इस तीव्र संक्लेशसे भरे संसारमें भ्रमण करते हुए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अति दुर्लभ है। जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट किया उसने आत्मामें मोक्षका पक्ष बोया है। इसलिये सर्व उद्यमसे सम्यग्दर्शनका सेवन कर ।। सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके पश्चात् क्या करना वह अब चौथे श्लोकमें कहते हैं
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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