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________________ भाषकर्म-प्रकाश ] । १५ की तरफके कुछ भाव किये है-सप्रकार तुझे धक बहुमानका भाव रहा करेगा। इसका हो लाभ है। और ऐसे भावके साथ नो पुण्य बंधता है वह भी लौकिक दया-दानकी अपेक्षा उच्चकोटिका होता है ! एक मकान पाँधने वाला कारीगर जैसेजैसे मकान ऊँचा होता जाता है वैसे-वैसे यह भी ऊँचा बढ़ता जाता है, उसीमकार धर्मी जीव जैसे-जैसे शुद्धतामें आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसके पुण्यका रस भी बढ़ता जाता है। जिन मंदिर और जिन-प्रतिमा करानेवालेके थायमें क्या है ? - इसके भावमें वीतरागताका आदर है और रागका आदर छट गया है। ऐसे भावसे करावे तो सच्ची भक्ति कहलाती है। और वीतरागभावके बहुमान द्वारा यह जीव अल्पकालमें रागको तोड़कर मोक्ष प्राप्त करता है। परन्तु, यह बात लक्ष्यमें लिये बिना, ऐसे ही कोई कह दे कि तुमने मन्दिर बनवाया इसलिये ८ भषमें तुम्हारा मोक्ष हो जायेगा, यह बात सिद्धान्तकी नहीं है। भाई, श्रावकको ऐसा शुभभाव होता है यह बात सत्य है, परन्तु इस रागकी जितनी हद हो उतनी रखनी चाहिये। इस शुभरागके फलसे उच्चकोटिका पुण्य बँधने का कहा है परन्तु उससे कर्मक्षय हाने भगवानने नहीं कहा है। कर्मका क्षय तो सम्यग्दर्शन-बान-चारित्रसे ही कहा है। ___ अरे, सच्चा मार्ग और सच्चे तत्त्वको समझे बिना जीव कहाँ भटक जात है। शास्त्रमें व्यवहारके कथन तो अनेक प्रकारके आते हैं, परन्तु मूल तत्वको और वीतरागभावरूप मार्गको लक्ष्यमें रखकर इसका अर्थ समझना चाहिये। शुभरागसे ऊँचा पुण्य बन्धता है-ऐसा बतानेके लिये उसकी महिमाकी, वहाँ कोई उसमें ही धर्म मानकर अटक जाता है। अन्य कितने ही जीव तो भगवानका जिम मन्दिर होता है वहाँ दर्शन करने भी नहीं जाते । भाई, जिसे वीतरागताका प्रेम होता है और जहाँ जिन-मन्दिरका योग हो वह! वह भक्तिसे रोज दर्शन करने जाता है। जिनमन्दिर बनवानेकी बात तो दूर रही, परन्तु यहाँ दर्शन करने जानेका भी जिसे अवकाश नहीं उसे धर्मका प्रेमी कौन कहे ? बड़े-बड़े मुनि भी वीतराग प्रतिमाका भक्तिसे दर्शन करते हैं और उसकी स्तुति करते हैं। पोन्नूर प्राममें एक पुराना मंदिर है, कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्राममें आये तब वे वहाँ दर्शन करने जाते थे । (संवत् २०२० की यात्रामें मापने वह मंदिर देखा है) समन्तभद्रस्वामीने भी भगवानकी पदभुत स्तुतिकी है। २००० वर्ष पूर्व किसी बड़े सजाको जिमाविम्ब-प्रतिष्ठा करवानी थी
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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