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________________ १२० ] [ भावकधर्म-प्रकाश से भक्तिभावपूर्वक जिन-प्रतिमा और जिन-मन्दिर बनवाने का भाव जिसे आता है उसे उच्च जातिका लोकोत्तर पुण्य बँधता है; क्योंकि उसके भावोंमें वीतरागताका बहुमान हुआ है । - पश्चात् भले ही प्रतिमा मोटी हो या छोटी, परन्तु उसकी स्थापनामें वीतरागताका बहुमान और वीतरागका आदर है, यही उत्तम पुण्यका कारण है । भगवान की मूर्तिको यहाँ "जिनाकृति कहा है अर्थात् अरहन्त - जिनदेवकी जैसी आकृति होती है वैसी ही निर्दोष आकृतिवाली जिन-प्रतिमा होती है । जिनेन्द्र भगवान् - मुकुट नहीं पहनते और इनकी मूर्ति वस्त्र मुकुट सहित हो तो इसे जिनाकृति नहीं कहते । जिन प्रतिमा जिनसारखी भाखी आगम माँय । ऐसी निर्दोष प्रतिमा (6 39 "" जिनशासनमें पूज्यनीय है । यहाँ तो कहते हैं कि अहो, जो जीव भक्तिसे ऐसा वीतराग जिनबिम्ब और जिम प्रतिमा कराता है उसके पुण्यकी महिमा वाणीसे कैसे कही जा सकती है ? देखो तो सही, धर्मीके अल्प शुभभावका इतना फल ! तो इसकी शुद्धताको महिमाकी तो क्या बात !! जिसे अन्तरंगमें वीतरागभाव रचा उसे वीतरागताके बाह्य निमित्तोंके प्रति भी कितना उत्साह हो ? एक उदाहरण इसप्रकार आता है कि – एक सेठ जिनमन्दिर बनवाता था, उसमें काम करते हुए पत्थरकी जितनी रज कारीगर द्वारा निकाली जाती उसके वजन के बराबर चाँदी देता था । इसके मनमें ऐसा भाव था कि अहो, मेरे भगवान्का मन्दिर बन रहा है तो उसमें कारीगरोंको भी मैं प्रसन्न करूँ, जिससे मेरा मन्दिरका काम उत्तम हो । उस समयके कारीगर भी सच्चे हृदय वाले थे। वर्तमानमें तो लोगों की वृत्ति में बहुत फेरफार हो गया है। यहाँ तो भगवानके भक्त भावक-धर्मात्माको जिन-मन्दिर और जिन - प्रतिमाका कैसा शुभराग होता है वह बताया है । संसार में देखो तो, पाँच-इस लाख रुपयोंकी कमाई हो और लाख-दो लाख roये खर्च करके बंगला बनवाना हो तो कितनी होंश करता है ? कहाँ क्या चाहिये और किसप्रकार अधिक शोभा हो - इसका कितना विचार करता है ? इसमें तो ममताका पोषण है । परन्तु धर्मात्माको ऐसा विचार आता है कि अहो, मेरे भगवान जिसमें बिराजें पेसा जिनमंदिर, उसमें क्या-क्या चाहिये और किस रीतिले अधिक शोभित हो ? – इसप्रकार विचार करके होंशसे ( तनसे, मनसे, धनसे) उसमें वर्तन करता है। वहाँ व्यर्थकी झूठी करकसर अथवा कंजूसाई करता नहीं । भाई, ऐसे धर्मकार्यमें तू उदारता रखेगा तो तुझे ऐसा लगेगा कि मैंने जीवनमें धर्मके लिये कुछ किया है, एकमात्र पापमें ही जिन्दगी नहीं बिगाड़ी, परन्तु धर्म
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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