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________________ १२२ ] [ भावकधर्म-प्रकाश 66 99 तब उसकी विधिके लिये शास्त्र रखने की आज्ञा कुन्दकुन्दाचार्यदेवने अपने शिष्य जयसेन मुनिको दी, उन जयसेन स्वामीने मात्र दो दिनमें प्रतिष्ठा पाठकी रचनाकी इसलिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवने उन जयसेन स्वामीको “वसुबिन्दु ( अर्थात् आठ कर्मों का अभाव करनेवाले ) ऐसा विशेषण दिया, उनका रचा प्रतिष्ठा-पाठ 'वसुबिन्दु' प्रतिष्ठा-पाठ कहलाना है। उसके आधार से प्रतिष्ठाको विधि होती है। बड़े-बड़े धर्मात्माओंको जिन भगवानकी प्रतिष्ठाका, उनके दर्शनका ऐसा भाव आता है, और तू कहता है कि मुझे दर्शन करनेका अवकाश नहीं मिलता अथवा मुझे पूजा करते शर्म आती है ! तो तुझे धर्मकी रुचि नहीं, देव गुरुका तुझे प्रेम नहीं । पापके काम में तुझे अवकाश मिलता है और यहाँ तुझे अवकाश नहीं मिलता-यह तो तेरा व्यर्थका बहाना है । और जगत् के पापकार्यों काला बाजार आदि के करनेमें तुझे शर्म नहीं आती और यहाँ भगवानके समीप जाकर पूजा करनेमें तुझे शर्म आती है !! वाह, बलिहारी है तेरी औंधाई की ! शर्म तो पापकार्य करनेमें आनी चाहिये, उसके बदले वहाँ तो तुझे होश आती है और धर्मके कार्य में शर्म आनेका कहता है, परन्तु वास्तव में तुझे धर्मका प्रेम ही नहीं है। एक राजाकी कथा आती है कि राजा राजदरबार में आ रहा था वहाँ बोचमें किन्हीं मुनिराजके दर्शन हुये, वहाँ भक्तिसे राजाने उनके चरणमें मुकुटबद्ध सिर झुकाया और पश्चात् राजदरबार में आया । वहाँ दीवानने उनके मुकुट पर धूल लगी देखी और वह उसे झाड़ने लगा । तब राजा उसे रोककर कहते हैं कि -दीवानजी रहने दो... इस रजसे तो मेरे मुकुटकी शोभा है यह रज तो मेरे बीतराग गुरुके चरणसे पवित्र हुई है ! - देखो, यह भक्ति !! इसमें इसे शर्म नहीं आती कि अरे, मेरे बहुमूल्य मुकुटमें धूल लग गई ! - अथवा अन्य मेरी हँसी उड़ायेंगे ! अरे, भक्तिमें शर्म कैसी ? भगवानके भक्तको भगवान के दर्शन बिना चैन नहीं । यहाँ ( सोनगढ़ में ) पहले मंदिर नहीं था, तब भक्तोंको ऐसा विचार आया कि अरे, अपनेको यहाँ भगवानका विरह हुआ है, उनके तो साक्षात् दर्शन नहीं और उनकी प्रतिमाके भी दर्शन नहीं ! - इस प्रकार दर्शनकी भावना उत्पन्न हुई । उस परले संवत् १९९७में यह जिन-मन्दिर बना । आचार्यदेव कहते हैं कि अहो, भगवानके दर्शनसे किसे प्रसन्नता न हो ! और उनका जिन मन्दिर तथा जिन-प्रतिमा स्थापन करावे उसके पुण्यकी क्या बात !! भरत चक्रवर्ती जैसों ने पांच-पांच सौ धनुषकी ऊँची प्रतिमाएँ स्थापित करवाई थीं, उनकी शोभाको क्या बात !! बर्तमानमें भी देखिये- बाहुबली भगवान की मूर्ति कैलो है ! अहा, वर्तमानमें तो इनकी कहीं जोड़ नहीं । नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती महान मुनि
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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