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________________ [ m भापकर्म-प्रकाश ] ........[२२] ......... सची जिनभक्तिमें वीतरागताका आदर PRETRIOSISTERESSES FARASHTRIANRAPARIWARIRROR + RABARIRIASRANASAMEERNATA धर्मीके थोड़े शुभभावका भी महान फल है तो इसकी शुदनाकी महिमाकी तो क्या बात ! जिसे अन्तरमें वीतरागभाव रुचा उसे वीतरागताके बाह्य निमित्तोंके प्रति भी कितना उन्माह होगा ! जिनमंदिर बनवानेकी बात तो दूर रही परन्तु वहाँ दर्शन करने जानेका भी जिसे अवकाश नहीं-उसे धर्मका प्रेमी कौन कहे ? EVISERRASSHRIRAMESHRA वीतरागी जिनमार्गके प्रति श्रावकका उत्साह कैसा होता है और उसका फल क्या होता है वह कहते हैं विम्बादलोनति यवोन्ननिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसम्र निनाकति च पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारयितुः द्वयस्य :। २२ ॥ जो जीव भक्तिसे बेलके पत्र जितना छोटा जिनमंदिर बनवाता है और जो जो के दाने जितनी जिन-माकृति (मिनप्रतिमा) स्थापित कराता है उसके महान पुण्यका वर्णन करनेके लिये इस लोकमें सरस्वती-वाणी भी समर्थ महीं, तो फिर जो जीव यह दोनों कराता है, अर्थात् ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिर बनवाता है और अतिशय मध्य जिन-प्रतिमा स्थापित करवाता है-उसके पुण्यकी तो क्या बात ! देखो, इसमें " भक्तिपूर्वक "की मुख्य बात है। मात्र प्रतिष्ठा अथवा मानसन्मानके लिये अथवा देखादेखीसे कितने ही पैसे खर्च कर दे उसकी यह बात नहीं, परन्तु भक्तिपूर्वक अर्थात् जिसे सर्वश भगवानकी कुछ पहचान हुई है और मन्तरमें गुमान पैदा हुआ है कि अहो, ऐसे वीनरागी सर्वशदेव! ऐसे भगवानको में अपने मन्तरमै स्थापित कऊँ और संसारमें भी हमको प्रसिदि हो-ऐसे मार
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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