SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १००] [ भावकधर्म-प्रकाश फंसे हुएके समान है। जिस प्रकार रसना-इन्द्रियकी तीव्र लोलुपी मछली जालमें फस जानी है और दुःखी होती है, उसी प्रकार तीव लोलुपी गृहस्थ मिथ्यात्व-मोहकी जालमें फँसा रहता है और संसारभ्रमणमें दुःखी होता है। ऐसे संसारसे बचने हेतु दान नौकासमान है। अतः गृहस्थोंको अपनी ऋद्धिके प्रमाणमें दान करना चाहिये। "ऋद्धिके प्रमाणमें" का अर्थ क्या? लाखों-करोड़ोंकी सम्पत्तिमें से पांचदम रुपया खर्चे-वह कोई ऋद्धिके प्रमाणमें नहीं कहा जा सकता । अथवा अन्य कोई करोड़पतिने पाँच हजार वर्च किये और मैं तो उससे कम सम्पत्ति वाला हैअतः मुझे तो उमसे कम खर्च करना चाहिये-ऐसी तुलना न करे । मुझे तो मेरे राग घटाने हेतु करना है ना ? उसमें दुसरेका क्या काम है ? प्रश्नः-हमारे पास ओछी सम्पत्ति होवे तो दान कहाँसे करें ? उत्तरः-भाई, विशेष सम्पति होवे तो ही दान होवे ऐसी कोई बात नहीं। और तू तेरे संसारकार्यो में तो खर्च करता है कि नहीं ? तो धर्मकार्यमें भी उल्लासपूर्वक मोठी सम्पत्तिमें से तेरी शक्ति प्रमाण स्वर्च कर । दानके बिना गृहस्थपना निष्फल है। अरे, मोक्षका उद्यम करनेका यह अवसर है। उसमें सभी राग न छुटे तो थोड़ा राग तो घटा! मोक्ष हेतु तो सभी राग छोड़ने पर मुक्ति है: दानादि द्वारा थोड़ा राग भी घटाते तुझसे जो नहीं बनता तो मोक्षका उद्यम तू किस प्रकार करेगा? अहा, इस मनुष्यपने में आत्मामें रागरहित ज्ञानदशा प्रगट करनेका प्रयत्न जो नहीं करता और प्रमादसे विषय-कषायोंमें ही जीवन बिताता है वह तो मूदबुद्धि मनुष्यपना खो देता है-बादमें उसे पश्चाताप होता है कि अरे रे! मनुष्यपने में हमने कुछ नहीं किया! जिसे धर्मका प्रेम नहीं, जिस घरमें धर्मात्माके प्रति भक्तिके उल्लाससे तन-मन-धन नहीं लगाया माता वह वास्तवमें घर ही नहीं है परन्तु मोहका पिंजरा है, संसारका जेलखाना है। धर्म की प्रभावना और दान द्वारा ही गृहस्थपनेकी सफलता है । मुनिपनेमें रहते हुए तीर्थकरको अथवा अन्य महामुनियोंको आहारदान देने पर रत्मवृष्टि होती है-ऐसी पात्रदानकी महिमा है। एकबार माहारदानके प्रसंगमें एक धर्मात्माके यहां रत्नवृष्टि हुई, उसे देखकर किसीको ऐसा दुभा कि मैं भी दान देऊँ जिससे मेरे यहां भी रत्न बरसें । -ऐसो भावनासहित आहारदान दिया, आहार दंता जाये और भाकाशको ओर देखता जावे कि अब मेरे मांगनमें रत्न बरसेंगे; परन्तु कुछ नहीं बरसा। देखिये, इसे दान नहीं कहते; इसमें मूड
SR No.010811
Book TitleShravak Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year1970
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy